पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

शासित अच्छाइयो और बुराइयो की सही छाप एक ऐसे ही कलाकार के हृदय पर पड सकती थी, जो स्वय महाजनी सभ्यता मे पला हो। काशी नरेश की शुभचिन्तना पर कोई कवि कलाकार ही यह कह सकता था कि जिस दौलत ने मेरे बाप-दाशे को खाया है उसे मैं खा डालंगा। यह विद्रोही वाक्य उसी हृदय से फूट सकता है जो अपने समाज की विसगतियो से घुट रहा हो और उसे नयी व्यवस्था देने के लिए आग्रहशील हो। हरिश्चन्द्र जी ने अपने इतिहास-प्रसिद्ध वृद्ध प्रपितामह सेठ अमीचन्द और ईस्ट इडिया कम्पनी का सारा दुखद काण्ड अपने घरवालो से अवश्य सुना होगा। उन्होने अपने धनकुबेर कवि पिता गोपालचन्द्र जी के दरबार में भारत की दिनोदिन आर्थिक अवनति के सबध मे वे सब बाते भी अवश्य सुनी होगी, जो ईस्ट इडिया कम्पनी के द्वारा भेजी गई एक प्रश्नावली के उत्तर मे उनके पितामह बाबू हषचन्द्र जी ने लिख भेजी थी। सत्तावनी गदर इनकी सात वष की अवस्था में पाया था। उ. दिनो सैकडो नईपुरानी बातो के साथ-साथ बालक हरिश्चन्द्र को अंग्रेजी नीतियो और चालबाजियो का जो आभास बडो की बातो से मिला होगा, वह उन पर स्थायी छाप छोड गया। उस छाप ने एक ओर जहाँ उन्हे स्वदेशी आन्दोलन का आदि नेता बनाया वही दूसरी ओर धन और महाजनी सभ्यता से उन्हें वितृष्णा भी हो गयी । वैष्णवी मानवतावादी सस्कार और भक्त हृदय की भावुकता भी इन्हें अपने वशपरपरागत पेशे के प्रति एक ओर जहा उदासीन बना रही थी वही दूसरी ओर उसी पेशे से अर्जित खानदानी धनराशि का लोकोपकारी कार्यों में अधिकाधिक उपयोग करने की उनकी इच्छा और प्राग्रह को भी बढावा देती थी। जब इससे धन बचता तो फिर उसे अपनी मनमानियो मे फ्कते थे। महाजन के वशधर को अपनी कमाई से अधिक अपने देश की आर्थिक कमाई की चिन्ता थी। वे अपने सोते हुए जन-समाज मे उसी की चेतना जगाने के लिए अपने