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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र

"जो गुन नप हरिचन्द मे, जगहित सुनियत कान । सो सब कवि हरिचन्द मे, लखहु प्रतच्छ सुजान ॥ परन्तु इतना होने पर भी इन की उदारता या इन के अपरिमित व्यय मे कमी कभी न हुई। मरने के समय तक ये हजारो ही रुपए महीने मे व्यय करते थे और वह परमेश्वर की कृपा से कही न कहीं से श्राही जाते थे। सम्पत्तिनाश के पीछे ये बीस बाईस वर्ष और जीए, इतने समय मे इन्होने कम से कम तीन चार लाख रुपये व्यय किए, और लाखो ही रुपये ऋण किए, परतु जिस जगतपिता जगदीश्वर की सन्तान के उपकार के लिये इन का धन व्यय होता था उस की कृपा से न तो कभी इन का हाथ रुका और न मरने के समय ये ऋणी ही मरे ।

हिंदी के राजभाषा बनाने का उद्योग

अब फिर साधारण हितकर कार्यों तथा साहित्य चर्चा की ओर झुकिए। जब विद्यारसिक सर विलियम म्योर की लाटगीरी का समय पाया, उस समय हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिये बहुत कुछ उद्योग किया गया, परन्तु सफलता न हुई। ये इस उद्योग मे प्रधान थे। सभाएं की थीं, प्राथनापत्र भेजे थे, समाचार पत्रो मे आन्दोलन किया था। हिन्दी के उत्तम ग्रन्थो के लिये पारितोषिक देने की व्यवस्था की गई, परन्तु उस मे भी सिफारिश की बाजार गर्म हुई। "रत्नावली", "उत्तर- रामचरित्र' प्रादि के अनुवाद ऐसे भ्रष्ट निकले कि हिन्दी साहित्य को लाभ के बदले बड़ी हानि पहुंची। उन अनुवादको को बहुत कुछ पारितोषिक दिया गया, किन्तु उत्तम ग्रन्थो की कुछ भी पूछ न की गई। केम्पसन साहब उस समय शिक्षाविभाग के डाइरेक्टर थे, राजा शिवप्रसाद उन के कृपापान थे। इधर राजा साहब का हृदय अपने सामने के एक 'छोकरें' की उन्नति से जला हुआ था, उधर बाबू साहब का हृदय 'हाकिमी प्रत्याय से कुढ गया था, दूसरा एक कारण राजा साहब से इन के विरोध का यह हुआ कि राजा साहब ने फारसी आदि मिश्रित खिचडी हिन्दी की सृष्टि कर के उसे चलाना चाहा, और बाबू साहब ने शुद्ध हिन्दी लिखने का मार्ग चलाया और सर्व साधारण ने इसी को रुचि के साथ ग्रहण किया। अब इसे रोकने और उसे चलाने का उपाय गवर्मेण्ट की शरण बिना असम्भव जान राजा