साहब ने हाकिमो को उधर ही झुकाया। यही एक प्रधान कारण उस समय हिन्दी राजभाषा न होने का भी हुआ था । यदि भाषा का झगडा न हो कर अक्षरोहीका होता तो सम्भव था कि सफलता हो जाती।
इसके पीछे एजूकेशन कमीशन के समय भी बडा उद्योग किया था, तथा प्रयाग हिन्दू समाज के पूरे सहायक थे जिसने इस विषय मे बडा उद्योग किया था।
गवर्मेण्ट का कोप
बाबू साहब का स्वभाव कौतुकप्रिय और रहस्यमय तो था ही। इन्हो ने तरह तरह के पच लिखने प्रारम्भ किए। इधर हाकिमो के कान भरे जाने लगे। एक लेख 'लेवी प्राणलेवी' तो निकला ही था, जिस मे लेवी दर्वार मे हिन्दुस्तानी रईसो की दुर्दशा का वर्णन था, दूसरा एक 'मसिया' निकला जिस का कटाक्ष सर विलियम म्योर पर घटाया गया। बस, फिर क्या था, बरसो की भरी भराई बात निकल पडी, गवन्मेण्ट की कोपदृष्टि इन पर पडी। इस लेख के कारण 'कवि- वचनसुधा', जो गवन्मेण्ट लेती थी, वह बन्द किया गया। 'हरिश्चन्द्रचद्रिका' यह कहकर बन्द की गई कि इस मे कवि-हृदय-सुधाकर ऐसा घृणित ग्रन्थ छपता है। उक्त ग्रन्थ मे एक यती और वेश्या का सम्वाद है। एक योग ज्ञान आदि की बडाई करता और दूसरा भोग विलास की। अन्त जय यती की हुई। यह उपदेशमय अन्थ कुरुचि उत्पादक समझा गया। 'बालाबोधनी' यह कहकर बन्द की गई कि मावश्यकता नहीं है। अगरेजो मे चारो ओर इन्हें डिसलायल (राज बिरोधी) कहकर धारणा होने लगी। इन का स्वाधीन और उन्नत हृदय इस लाछना को सहन न कर सका । पहिले तो इन्हो ने उद्योग किया कि इस अनुचित विचार को दूर करावें, परन्तु इस मे कृतकार्य न होने पर इन्हो ने राजपुरुषो से सारा सम्बन्ध छोडनाही उचित समझा, क्योकि जिस व्रत को इन्होने धारण किया था उसमे हाकिम-समागम से बहुत कुछ बाधा पडती थी। आनरेरी मैजिस्ट्रेटी आदि सरकारी कामो को छोड अपने उदार उद्देश्यो की ओर लगे। वास्तव मे जिन लोगो ने इन को अपदस्थ करना चाहा था, उन्हो ने इस देश तथा स्वय के साथ बडा उपकार किया, क्योकि यदि यह घटना न होती तो ये न तो 'भारतनक्षत्र' (स्टार प्राफ