पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/७६

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(५८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र इण्डिया) के बदले में 'भारतेन्दु' (मून श्राफ इण्डिया) होते, और न सच्चे सहृदय हरिश्चन्द्र को पाकर यह देश ही इतना लाभ उठा सकता। राजभक्ति यहाँ कुछ विचार इस का भी करना आवश्यक है कि ये राजद्रोही थे या राजभक्त । यदि इन के लिखे 'भारतदुर्दशा नाटक को विचारपूर्वक देखा जाय तो इस प्रश्न का उत्तर सहज मे मिल सकता है। उस मे स्पष्ट दिखला दिया है कि हाकिम लोग राजद्रोह उसे समझे है जो वास्तविक राजभक्ति है। केवल 'करदुख बहै' इतना कहना ही राजद्रोह का चिन्ह समझा जाता है। इस बात को राजा शिवप्रसाद ने मुक्त कण्ठ से अपनी जुविली की वक्तृता मे कह दिया है, परन्तु राज- भक्त भारतहितषी हरिश्चन्द्र ऐसा कहना पूरी राजभक्ति का चिन्ह समझते थे। वह प्रजा के दुखो को राजा के कानो तक पहुंचाना राजहित समझते थे। जो व्यक्ति 'भारतजननी', 'भारतदुर्दशा' ग्रन्थो मे, जिनमे उस के राजनैतिक विचार स्पष्ट रूप से बणित हैं मुक्तकठ से यो कहता है- "पृथीराज जयचन्द कलह करि यवन बुलायो । तिमिरलग चगेज आदि बहु नरन कटायो॥ अलादीन औरगजेब मिलि धरम नसायो । विषय वासना दुसह मुहम्मदसह फैलायो॥ तब लो बहु सोए बत्स तुम जागे नहिं कोऊ जतन । अब तौ रानी विक्टोरिया, जागहु सुत भय छाडि मन ॥" क्या वह कभी भी राजद्रोही हो सकता है जो यह कह कर- "अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी । पै धन विदेस चलि जात यहै अति ख्वारी॥" अपने देशवासियो को व्यापार की उन्नति करने को उत्तेजित करता है ? इनके बलिया आदि के व्याख्यान, कविता, नाटक, लेखादि जिसे देखिएगा, उस मे ब्रिटिश सासन से भारत के कल्याण का प्रमाण मिलेगा। हाँ, इन की बुद्धि मे जो बातें