पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/७९

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६१) "प्रेमयोगिनी" मे मन्दिरो तथा तीर्थबासी ब्राह्मणो आदि का रहस्योद्घाटन पूरी रीति पर कर दिया। "प्रङ्गरेज-स्तोत्र" लिखा, जिस का अपढ़ समाज में उलटा फल फला कि यह तो 'किरिस्तान' हो गए। जैनमन्दिर में जाने के कारण लोग नास्तिक, धमबहिर्मुख कहकर निन्दा करने लगे, (इसी पर "जैन-कुतूहल" बना)। नवीन वयस, रसिकतामय स्वभाव, विलासप्रियता, परम स्वतन्त्र प्रकृति --निदान चारो ओर से लोग इन की चाल व्यवहार पर आलोचना करते और कटाक्षो मौर निन्दा की बौछारो का ढेर लगा देते थे। कोई कहता "दुइ चार कवित्त बनाय लिहिन, बस हो गया", कोई कहता "पढिन का है दुइ चार बात सीख लिहिन, किरिस्तानीमते को"। ऐसी बातो से हरिश्चन्द्र का हृदय व्यथित होता था। उन्होने निज चरित्र तथा उस समय की अवस्था दिखाने के लिये "प्रेम योगिनी" नाटक लिखना प्रारम्भ किया था जो अधूरा ही रह गया, परतु उस उतनेही से उस समय का बहुत कुछ पता लगता है। उसमे इन्होंने अपने मन का क्षोभ दिखलाया है। इस इतने विरोध और निन्दावाद पर भी आश्चय की बात यह है कि लोग इन्हें अजातशत्रु कहते है और यह उपाधि इनकी सववादिसम्मत है। आदि कविता अब हम सक्षेपत इनके उन कामो का वर्णन करते हैं जिन्होने इन्हें लोकप्रिय बनाया। यह हम ऊपर कह ही पाए हैं कि इन्होने अत्यन्त वाल्यावस्था से कविता करनी प्रारम्भ की थी। अब इन की कुछ प्रादि कविताएँ उद्धृत करते हैं। सबसे पहिला पद यह बनाया -- ___ "हम तो मोल लिए या घर के । दास दास श्री बल्लभकुल के चाकर राधाबर के। माता श्री राधिका पिता हरि बन्धु दास गुनकर के । हरीचन्द तुमरे ही कहावत, नहिं बिधि के नहिं हर के"॥ सब से पहिली सवैया यह है-- "यह सावन सोक नसावन है, मन भावन यामैं न लाजै भरो। जमुना पै चलौ सु सबै मिलि के, अरु गाइ बजाइ के सोक हरो॥