पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/८

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पुरखो का धन फूक रहे थे । पैसे के महत्व को पूणतया जानते हुए भी उन्हें मानो पैसे से चिढ थी। भारतेन्दु की अग्रेज भक्ति या राजभक्ति के सबध मे अक्सर कुछ बाते उठायी गयी है । जहा तक मै समभता हूँ, भारतेन्दु के मन मे किसी राजाविहीन समाज की कल्पना तक नहीं आई होगी। यद्यपि भारत 'निज स्वत्व गहे' की कामना उनके मन मे अवश्य उदय हो चुकी थी, फिर भी राजभक्ति का सस्कार उनके मन मे दह था। जिस जाति का शासन था उसके प्रति उनके मन की प्रतिक्रियाये दो प्रकार से प्रकट हुई है-- भीतर भीतर सब रस चूसें हँसि हँसि के तन-मन-धन मूसे जाहिर बातन मे अति तेज क्यो सखि साजन, नहिं अग्रेज। दूसरी ओर अग्रेज जाति की प्रौद्योगिकता, अनुशासन, अध्ययनशीलता, नारी-स्वाधीनता आदि अनेक गुणो का आदर करना भी उनका स्वभाव था। अग्रेज-शासन की आर्थिक, शैक्षिक आदि अनेक नीतिया के विरोध करने के बावजूद वे अपने राष्ट्र के हित में अग्रेजी शासन के समथक भी थे, विरोधी नही थे। अपने देशवासियो को चेताने के लिये वह यह भी कह सकते थे-- तब लौं बहु सोये वत्स तुम जागे नहि कोऊ जतन अब तौरानी विक्टोरिया जागहु सुत भय छौंडि मन। भारतेदु के बलिया के भाषण में भी यही बात है कि अग्रेजो के शासनकाल में भारतवासी अपनी उन्नति कर सकते है। अग्रेजो के समय मे पिछली कई शताब्दियो के बाद शान्ति और व्यवस्था के सुदिन आए थे। उस समय का लाभ उठाते हुए भारतेन्दु अपने देश, समाज को सशक्त बनाना चाहते थे। उस समय की मनोभूमि दर्शाते हुए गुरदेव रवीद्रनाथ भी यह कहते है कि-"तखन आमा