पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/८१

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (६३) को पृथक रस मानना चाहिए। इनके अकाटय प्रमाणो से मुग्ध होकर तर्करत्न महाशय ने अपने उक्त ग्रन्थ मे लिखा है "हरिश्चन्द्रास्तु वात्सल्य सख्या भक्तया- नन्दाखयमधिक रस चतुष्टय मन्वते" आगे चलकर इन्होने उदाहरण भी दिए हैं। यो ही शृगार रस में भी ये अनेक सूक्ष्म भेद मानते थे, जैसे ईर्षामान के दो भेद, विरह के तीन, शृङ्गार के पञ्चधा, नायिका के पाँच, और गविता के पाठ, यो ही कितने ही सूक्ष्म विचार हैं जिनको तकरत्त महाशय ने सोदाहरण इनके नाम से अपने उक्त ग्रन्थ मे मानकर उद्धृत किए हैं। इनके इन नए मतो पर उस समय पण्डित मडली मे बहुत कुछ लिखा पढी हुई थी, इसका आन्दोलन कुछ दिनो तक, सुप्रसिद्ध “पण्डित" पत्र में, (जो "काशी-विद्या-सुधानिधि" के नाम से सस्कृत कालेज से निकलता है) चला था। खेद का विषय है कि इस विषय का पूरा निराकरण वह किसी अपने ग्रन्थ मे न कर सके। उनकी इच्छा थी कि अपने पिता के अधूरे ग्रन्थ "रस रत्नाकर" को पूरा कर और उसी में इस विषय को लिखे। इसे उन्होने प्रारम्भ भी किया था और नाम मात्र को थोडा सा "हरि- श्चन्द्र मैगजीन" के ७-८ अङ्क मे प्रकाशित भी किया था कि जिसको देखने ही से बटुए के एक चावल की भाँति पूरे प्रथ का पता लगता है। परन्तु उनकी यह इच्छा मन की मन ही मे रह गई और इसमे उन्हो ने अपने उस बडे दोष को प्रत्यक्ष कर दिखाया जिसे स्वय ही "चन्द्रावली नाटिका" के प्रस्तावना में पारिपार्श्वक के मुख से कहलाया था कि "वह तो केवल प्रारम्भ शूर है" । बाबू साहेब ने इन रसो का कुछ सक्षिप्त वर्णन अपने "नाटक" नामक ग्रन्थ मे किया है । अस्तु, जो कुछ हो, परन्तु ऐसे गम्भीर विषय पर एक १२ वर्ष के बालक का मत प्रकाश करना और एक बडे पण्डित को मना देना क्या प्राश्चय की बात नहीं है ? काशी मे होमियोपैथिक का प्रचार होमियोपैथिक चिकित्सा का नाम तक काशी में कोई नहीं जानता था, पहिले पहिल इन्होने ही अपने घर में इसे प्रारम्भ किया और इसके चमत्कार गुणो से मोहित हो "होमियोपैथिक दातव्य चिकित्सालय" (सन् १८६८) स्थापित कराया, जिसमे बराबर तन मन धन से ये सहायता देते रहे इस चिकित्सालय मे १२०) वार्षिक चन्दा सन् १८६८ से ७३ तक देते रहे। बाबू लोकनाथ मैत्र बङ्गाल