पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/९

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स्वजातिर स्वाधीनतार साधना आरम्भ करेछिलुम, किंतु अतरेअतरे छिल इग्रेज जातिर औदार्येर प्रति विश्वास ।" भारते दु को अपने तत्कालीन समाज से कही पर बडी गहरी चिढ और शिकायते भी थी। अपने देश के पतना मुखी निष्क्रिय रूढिग्रस्त समाज से उन्हे बेहद चिढ थी, वे उसे बदलने के लिये व्यग्न रहते थे। __उन्हें उम्र देने में नियति ने पूरी कजूसी से काम लिया था। काम के लिए मुश्किल से १६-१७ वर्ष ही उन्हें मिल पाये होगे। मगर क्या दीवानी तडप यी उनमे कि आप तो बहुत कुछ कर ही गये, सम्पूण हिन्दी-भाषी विशाल क्षेत्र में अपने समानधर्मा लोगो से भी काम करा लिया। सच पूछा जाय तो भारतेन्दु स्वय ही हिन्दी का प्रथम मच थे। भारतेन्दु ने अपने समाज को समय की धारा मे बेबस बहने के बजाय तैर कर पार करना सिखलाया। डा० रामविलास शर्मा ने अपन क्सिी लेख या पुस्तक मे एक बडे मार्के की बात लिखी है। वह कहते है कि राजभाषा होने के कारण यो तो फारसी ने भारत की सभी भाषाओ को किसी न किसी हद तक प्रभावित किया पर खड़ी बोली जब फारसी शब्दावली का सिगार सज कर साहित्य के क्षेत्र मे आई तो केवल कुछ नगरो और ऊँचे वग के लोगा को ही आकर्षित कर सकी, किन्तु विशाल हिंदी भाषी क्षेत्र की अन+ वोनिया के बावजूद जो साहित्यिक परम्परा सवत्र वतमान थी वह जायसी, कबीर, तुलसी, रसखान, रहीम, देव, मतिराम, विहारी आदि की थी। फारसी मिश्रित खडी बोली मे यह परपरा अँटती न थी। इसलिए भारतेन्दु ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ क्यिा, सभाएं की, प्रेस मे लिखा लिखाया, पटीशन भेजे परन्तु शिक्षा विभाग के निदेशक कैम्पसन साहब पर राजा शिवप्रसाद का जादू चढा हुआ था। राजा साहब को "क्ल के छोकरें" हरिश्चन्द्र की लोकप्रियता और बढते प्रभाव से चिढ थी। हिन्दी के पेटीशन नामजूर हुए। राधाकृष्णदास जी के अनुसार, बाबू साहब का हृदय 'हाकिमी' अन्याय से कुढ गया था ।