पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/९४

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र के सामान, तथा जादू के तमाशे के सामान लेकर दे दिए कि जिनसे वे आज तक कमाते खाते है । निदान कितने ही उदाहरण ऐसे हैं जिनका पता लगाना या वणन करना असम्भव है। लिफाफे मे नोट रखकर या पुडिया मे रुपया बाधकर चुपचाप देना तो नित्य की बात थी। कोई व्यक्ति दो चार दिन भी इनके पास आया और इन्हें उसका खयाल हुआ,, आप कष्ट पाते परन्तु उसे अवश्य कुछ न कुछ देते। यह अवस्था इनको भरने के समय तक थी। सन् १८७० मे इन्होने अपना हिस्सा अलग करा लिया था, परन्तु चारही पाँच वष मे जो कुछ पाया सब खो बठे। लगभग १४, १५ वष वह इस पथ्वी पर इस प्रकार से रहे कि न तो इनके पास कोई जायदाद थी और न कुछ द्रव्य । कभी कभी यह अवस्था तक हो गई कि चबना खाकर दिन काट दिया, परन्तु उदार-प्रकृति बीर हरिश्चन्द्र की दातव्यता कभी बन्द नही हई । आज पैसे पैसे के लिये कष्ट उठा रहे हैं, और कल कहीं से कुछ द्रव्य पाजाय तो फिर उसकी रक्षा नहीं, वह भी वैसेही पानी की भाँति बहाया जाता, दो ही तीन दिन मे साफ हो जाता। बहुत कुछ धनहीनता से कष्ट पाने पर भी इन्हें धन न रहने का कुछ दु ख न होता, सिवाय उस अवस्था के जब कि हाथ मे धन न रहने से किसी दयापान वा किसी सज्जन का क्लेश दूर न कर सकते, अथवा कोई धनिक इनके आगे अभिमान करता । ऋण इनके जीवन का साथी था। ऋण करना और व्यय करना । परतु आश्चर्य यह है कि न तो मरने के समय अपने पास कुछ छोड मरे और न कुछ भी उचित ऋण देने बिना बाकी रह गया | इनकी इस दशा पर महाराज काशिराज ने जो दोहा लिखा था हम उसे उद्धृत कर देते हैं-- "यद्यपि आपु दरिद्र सम, जानि परत त्रिपुरार । दीन दुखी के हेतु सोइ, दानी परम उदार ॥" लेखन शक्ति लेखनशक्ति इनको आश्चर्य थी, कलम कभी न रुकता। बातें होती जाती हैं कलम चला जाता है। डाक्तर राजेन्द्रलाल मित्र ने इनकी यह लीला देखकर 'इनका नाम Writing Machine (लिखने की कल) रक्खा था। उर्दू अंगरेजी वालो से कई बेर बाजी लगा कर हिन्दी लिखने मे जीता था। सब से बढ़कर आश्चर्य यह था कि इतना शीघ्र लिखने पर भी प्रक्षर इनके बडे सुन्दर