पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१२५

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११४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र रंगबिरंगे शर्वतों से बोतल सजाए हुए एक चौकी पर आ खड़े हुए थे। पं० चिन्तामणिराव धड़फल्ले तथा पं० माणिक्यलाल जोशी शिष्य बने हुए दोनों ओर चँवर झल रहे थे। लंबा कागज का पुलिंदा खोलते जाते और उपदेश पढ़ते जाते थे। इस समय के प्रोत्साहन से भी कई ग्रन्थ तैयार हुए थे तदीय समाज सं० १९३० वि० में स्थापित हुआ था, जिसका उद्देश्य ही धर्म तथा ईश्वर प्रेम था। गोबध रोकने के लिये इस समाज के उद्योग से साठ सहस्र हस्ताक्षर सहित एक प्रार्थना पत्र दिल्ली दरबार के समय भेजा गया था। गोहिमा आदि लेख भी लिखकर यह बराबर आन्दोलन मचाते रहे। उसी समय से अनेक स्थानों में गो-रक्षिणी सभायें तथा गोशालाएँ खुलने लगी। मदिरा-मांस सेवन रोकने के लिए भी इस समाज ने प्रयत्न किया और दो प्रकार की हजारों छोटी छोटी बही सी पुस्तकें छाप कर वितरित की। इनमें एक प्रकार की बहियों पर मदिरा न सेवन करने की और दूसरे पर मांस न खाने की प्रतिज्ञाएँ साक्षियों के सामने लिखाई जाती थीं। इस समाज ने देशी वस्तुओं के व्यवहार करने की प्रतिज्ञायें भी लोगों से कराई थीं। इस समाज से एक मासिक पत्रिका 'भगवद्भक्ति-तोषिणी' नाम की निकली थी। जो कुछ ही दिन बाद बंद हो गई। इसके अधिवेशनों में, जो प्रति बुधवार को होता था, गीता तथा भागवत का पाठ होता था और संकीर्तन भी होता था। इसमें प्रसिद्ध विद्वान, धनाढ्य तथा भक्त लोग ही सभासद होते थे। इनके छोटे भाई बा० गोकुलचन्द्र जी भी इसके सभासद थे। इसके अधिवेशनों में बिना आज्ञा लिए कोई बाहरी सज्जन नहीं आ सकते थे। लोकनाथ चौबे "नाथ' कवि ने एक अधिवेशन में उपस्थित होने के लिए टिकट मँगवाने के लिए २२ जनवरी सन् १८७४ ई० को निम्नलिखित दोहा लिखकर भेजा था।