पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१३६

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, पूर्वज-गण १२५ देने का कोई स्वत्व या अधिकार नहीं है, इसलिए तीन वर्ष बाद कार्तिक सुदी ३ सं० १९३५ वि० को एक बखशीशनामा लिखा गया। भारतेन्दु जी की स्वीकृति के विषय में लिखा है कि 'इस वास्ते कि मेरे बायस किसी की हक़तलफी न होवे इस वसीकः की तहरीर में रजामंदी व इत्तफाक़ बा० हरिश्चन्द्र व बा० गोकुलचन्द्र दोनों का मैंने हासिल कर लिया है जिसकी सदाक़त पर दोनों की दस्तखत इस वसीकः पर लिखी जाती है। इस 'वसीकः, पर बा० गोकुलचन्द्र का हस्ताक्षर है और इसे भी इन्हीं ने रजिष्ट्री के समय पेश किया था। बा० हरिश्चन्द्र का इस पर हस्ताक्षर नहीं है और उन्हें इसके अनुसार केवल साढ़े चार हज़ार रुपये दिए गए थे। इसमें से ढाई हजार बा० गोकुलचन्द्र ने उस ऋण के हिसाब में ले लिये, जो उन्होंने अपने भाई साहब को दिये थे। दो सहस्र फुटकर ऋण तथा डिगरियों को चुकाने के लिये रखे गए । अस्तु, पैतृक संपत्ति के बाद मातामह का भाग भी भारतेन्दु जी ने इस प्रकार फूंक-ताप कर सफाचट कर दिया। चलिए, इस तरह यह अपने भाग की लक्ष्मी को तो अवश्य खा गये पर बेचारे उस समूची लक्ष्मी को न खा सके जिसने इनके पूर्वजों को खाया था । 'घर के शुभचिंतकों' ने इस प्रकार भारतेंदु जी को बेघर का करके शांतिलाभ किया। गवर्नमेन्ट की कृपा और कोप जिस समय में घर के शुभचिंतकों ने इन्हें कुछ भाग देकर अलग कर दिया था उसी वर्ष अवैतनिक मैजिस्ट्रेसी का नियम बना था और काशी के दस सजन इस पद पर नियत थे उनमें सब से छोटी अवस्था वाले यही भारतेन्दु जी थे। कुछ. दिन बाद म्यूनिसिपल कमिश्नर भी नियत हुए और राजकर्म--