पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१३७

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१२६ भारतेंदु हरिश्चन्द्र चारियों में भी इनका मान होने लगा। इनकी प्रकाशित पत्रिकाओं तथा पुस्तकों की सौ सौ प्रतियाँ सरकार में बराबर ली जाने लगी। पंजाब विश्वविद्यालय ने इन्हें एफ० ए० कथा के संस्कृत का परीक्षक बनाया । सहज ईप्यालु पुरुष गण इतने अल्पवयस्क पुरुष की यह बढ़ती न देख सके और हाकिमों से इनकी चुगली खाने लगे। यह स्वभावतः स्पष्टवादी थे और सत्य सदा कटु होता है, इससे इन लोगों को बराबर अवसर मिलते रहते थे। यह विनोद-प्रिय थे इसलिए इनके लेखों में मज़ाक भी अधिक रहता था। कवि-बचन सुधा जिल्द २ नं० ५ में 'लेवी प्राण लेवी' नामक एक छोटा लेख निकला था । लॉर्ड मेयो के काशी आगमन पर १ नवम्बर सन् १८७० ई० को जो लेवी दरबार हुआ था, उसीका इसमें विनोदपूर्ण वर्णन है। इसका एक वाक्य यों है -सब के अंगों में पसीने की नदी बहती थी मानों श्रीयुत को सब लोग आदर से 'अर्घ्य पाद्य' देते थे। इस अर्घ्य पाद्यं का अर्थ कुछ दुष्टों ने राजकर्मचारियों को पदाघात आदि समझा दिया था और उनके कान में भी वहीं गूंजने लगा। 'अर्थ्य पाद्य' भारत की कितनी प्राचीन आदर की वस्तु है यह प्रत्येक सज्जन समझता है । इसके अनंतर एक मसिया निकला, जिसको सर विलियम म्योर पर आक्षेप करके लिखा गया, बतलाया गया । राजा शिव प्रसाद तथा छोटे लाट दोनों ही एक आँख का चश्मा (किजिंग ग्लास) लगाते थे। एक लेख 'भुतही इमली का कन कौआ' राजा साहब पर लिखा गया, जिसे छोटे लाट पर लिखा गया बतलाया गया । बस, गवर्नमेन्ट की कुदृष्टि इन पर पूरे रूप से पड़ गई । स्व० बा० बालमुकुद गुप्त . लिखते हैं-'यद्यपि हिंदी भाषा के प्रेमी उस समय बहुत कम थे