पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४४

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पूर्वज-गण १३३ 'धुमरि रहे, ना लिखि पाती, ना खबरि पठाई । नित नित बरसे धुध रे बदरवा, सूझत नाही', अब मोहिं अगरवा, देत झकोर पवन पुरवाई ।। होली-सजि आई है राजदुलारी राधाप्यारी, आज होरी खेले स्याम 'विहारी, घर घर से सब बनि बनि निकसी, पहिरि नवल तन सारी । केसर रंग संग लै गागरि, करन उनके पिचकारी ।। जुरि जुरि आई नन्द द्वार 'पर टेरत दै दै तारी । काल लाल कर गए अजगरी अाज हमारी पारी ।। फंद पड़ोगे जग सखियन के बंसीधर बनवारी । भूलि जायोगे स्यामसुन्दर तब गौअन की रखवारी ॥ लैहैं चनक दै मुकुट लकुटिया पीत पछौरि उतारी । मुरली छीन दैहैं दृग अंजन तो हम गोप कुमारी ।। रूपरतन' यों मान करत मिलि जोबन की मतवारी ! गलियन गलियन हूँ दति डोले प्रान प्रिया गिरिधारी ॥ काशीस्थ डाक्टर पूर्णचंद्र बनर्जी के भाई सुप्रसिद्ध बंग कवि हेमचन्द्र बनर्जी इन्हें बहुत मानते थे और जब ये कलकत्ते जाते थे ता इन सज्जनों में खूब साहित्यादि की चर्चा होती थी। द्वारिकानाथ विद्याभूषण, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, 'हिंदू पेट्रियट' के संपादक कृष्णदासपाल, पंजाब यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार नवीनचन्द्र राय, शालिग्रामदास, अतर सिंह भदौड़िया, बाबा संतोष सिंह, पूना के गणेश वासुदेव जोशी, डाक्टर भाऊदा जी प्रभृति विद्वानों से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी। केवल भारतीय विद्वत्समाज ही नहीं प्रत्युत् योरुपीय विद्या-प्रेमी गण भी इन्हें बड़ी आदर की दृष्टि से देखते थे। वे लोग इन्हें भारत का पोएट -लॉरिएट' ( राजकवि ) कहते थे। इनकी सर्वजन प्रियता तथा सबके आदर के पात्र होने का यही एक नमूना बहुत है कि पंडित रामशंकर जी व्यास के यह प्रस्ताव करते ही कि इन्हें 'भारतेन्दु' की पदवी सर्व साधारण की ओर से दी जाय, सभी हिन्दी प्रेमियों ने एक स्वर से इस