पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४६

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पूर्वज-गण १३५ इसके पहिले राजा शिवप्रसाद को भारत सरकार की ओर से सी० आई० ई० ( भारत नक्षत्र ) की पदवी मिल चुकी थी और इसी वर्ष राजा साहब तथा इनमें मनोमालिन्य हो जाने के कारण यह भारत सर्कार के कोप भाजन हो चले थे । ज्यों ज्यों सर्कार का इन पर कोप बढ़ता जाता था त्यों त्यों यह अधिक लोकप्रिय होते जाते थे । इनके गुणों की कीर्ति फैलती जा रही थी। देशीय तथा विदेशीय विद्वन्मंडली में इनकी प्रतिभा तथा रचनाओं की ख्याति खूब फैल चुकी थी और वे लोग मुक्तकंठ से इनकी प्रशंसा करने लगे थे। 'उत्तरीय भारत के कवि सम्राट "एशिया का एक मात्र समालोचक' आदि पदवियाँ वे दे रहे थे। लार्डरिपन के समय सहस्रों हस्ताक्षर से भारत सर्कार के पास एक मेमोरियल भेजा गया था कि इन्हें लेजिस्लेटिव काउन्सिल का मेम्बर चुनना चाहिए । अंततः इन्हें 'भारत नक्षत्र' से बढ़कर पदवी देने का विचार प्रजा पक्ष में पैदा हो चुका था, उसी समय सन् १८८० ई० में बा० हरिश्चन्द्र को चिढ़ाने की इसी पदवी 'मारतेन्तु' से इन्हें विभूषित करने के लिए पं० रामेश्वर दत्त व्यास ने २७ सितम्बर के 'सारसुधानिधि' पत्र में एक लेख में प्रस्ताव किया। सारे देश ने इसे स्वीकार कर लिया और तब से भारतेन इनका दूसरा नाम सा हो गया । प्रजा, भारत सर्कार तथा यूरो. पीय विद्वान् सभी इन्हें भारतेन्दु लिखने लगे। चिन्ता रोग तथा स्वर्गवास सं० १६२७ वि० में भारतेन्दु जी तथा इनके छोटे भाई में बँटवारा हो चुका था और वे अपने गृह के लोगों द्वारा 'अपव्ययी" समझ लिए गए थे । वे तकसीमनामे के अनुसार स्ववश के पुराने घर में रह सकते थे और इसीलिए वे उसमें रहते थे पर अपने