पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर्वज-गण १३७ था। 'इनका तो बाना ही था कि 'कितना भी दुःख हो उसे सुख ही मानना ।' हिन्दी तथा देश के लिये तो इनका हृदय चिन्ता- दग्ध था ही, उस पर अपने ही लोगों की या जिनके लिये वे यह अपना तन-मन-धन अर्पण कर रहे थे उन सबकी उदासीनता इनका हृदय जर्जर कर रही थी। इसी आत्मक्षेत्र का सं० १७३२ वि० में निर्मित सत्यहरिश्चन्द्र तथा. प्रेमयोगिनी की भूमिका में अधिक उद्गार प्रकट हुआ है । पहिले में केवल इतना ही कहा है कि “हाँ प्यारे हरिश्चन्द्र का संसार ने कुछ भी गुण रूप न समझा । क्या हुआ 'कहेंगे सबै ही नैन नीर भरि भरि पीछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी।' मृत्यु के बाद सभी की कहानी मात्र रह जाती है, पर कुछ ऐसी होती है कि जिसे बहुत दिनों बाद तक बहुत लोग कहते सुनते रहते हैं और कुछ दस पाँच दिन दस पाँच मनुष्य सुनकर भूल जाते हैं पर जब अपने जीवन काल ही में कोई समझ लेता है कि उसकी उसके जीते जी कहानी मात्र रह गई और उसकी किसी को आवश्यकता नहीं रह गई तब उसका आत्मक्षेत्र बहुत बढ़ जाता है। कुछ ऐसे ही विचारों ने इनके द्वारा निम्नलिखित क्षोभ-सूचक वाक्य कहलाए हैं इनमें का 'लोकवहिष्कृत' शब्द ही उनके तत्कालीन विचारों की कुंजी है। "क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परमबंधु, पिता-मित्र-पुत्र सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एक मात्र मूर्ति, सत्य का एक मात्र आश्रय, सौजन्य का एक मात्र पात्र, भारत का एक मात्र हित, हिन्दी का एक मात्र जनक, भाषा नाटकों का एक मात्र जीवनदाता, हरिश्चन्द्र ही दुखी हो। (नेत्र में जल भर कर) हा सज्जन शिरोमणे ! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि 'कितना भी दुःख हो उसे सुख ही मानना ।' लोभ के परित्याग के समय नाम और कीर्ति तक का परित्याग कर दिया