पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४९

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पूर्वज-गण १३६ चन्द । टरै सूरज टरै, टरै जगत का नेम। यह दृढ़ श्री हरिचन्द को, टरै न अविचल प्रेम ॥ इसी में श्री शुकदेव जी के मुख से कहलाया है कि-'अहा ! संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है, कोई नेम धर्म में चूर है. कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई मत मतांतर के झगड़े में मतवाला हो रहा है, एक दूसरे को दोष देता है। अपने को अच्छा समझता है, कोई संसार ही को सर्वस्व मान कर परमार्थ से चिढ़ता है, कोई परमार्थ ही को परम पुरषार्थ मान कर घर बार तृण सा छोड़ देता है। अपने अपने सब रंगे हैं।' जो कुछ हो परोपकाराय सतां विभूतयः' उक्ति रहेगी और ऐसे ही परोपकारी लोगों की कहानी पाठकों के हृदय पर स्थायी प्रभाव डाल सकेगी। भारतेन्दु जी का अर्थ संकोच इतना बढ़ा कि जमा गायब हो गई और ऋण का बोझ ऊपर से पड़ गया । एक एक का दो लिखवाने वालों ने जल्दी कर डिगरियाँ प्राप्त कर ली और इनसे रुपया वसूल करने का उपाय करने लगे। इन्हें मेवाड़- नरेश, काशिराज आदि कई गुणग्राही नरेशों से सहायता मिलती थी पर वे सब ऊपर ही ऊपर परोपकार में व्यय हो जाती थीं। डिगरियाँ कैसे साफ होतीं । उदाहरण मात्र के लिये एक डिगरी का वृत्ति यहाँ दिया जाता है ! काशी में श्रावण के प्रत्येक मंगल को दुर्गा जी का मेला होता है, जिसमें यह प्रायः जाते थे। एक डिगरीदार ने ऐसे समय वारंट निकाला कि ठीक वह उसी मेले का दिन था। यह इससे व्यस्त हो काशिराज के यहाँ सबेरे ही रामनगर पहुँचे । महाराज ने इनका उदास मुख देखकर इनके ऐसे समय आने का कारण पूछा तब इन्होंने सब हाल कह दिया। महाराज ने तुरंत सात सौ रुपये कोष से मंगवा कर इन्हें दे दिए.