पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५०

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भारतेंदु हरिश्चन्द्र और यह लेकर वहाँ से दुर्गा जी का मेला देखने को शोराम के बाग में चले गए। जिस समय मेला खूब जमा हुआ था, उसी समय एक ब्राह्मण देवता वहाँ उस बाग में आए और सबसे कहने लगे कि मेरी एक कन्या विवाह के योग्य हो गई है और मैं धनाभाव से उसका विवाह कर नहीं सकता। यहाँ इतने अग्रवाल वैश्य महाजन एकत्र हैं। यदि सब लोग दो दो चार रुपये दे दें तो मेरा धर्म बच जायगा।' वह इसी प्रकार सबसे कहता रोता फिरता था। किसी को सहायता न करते और उसे अति व्यग्र होते देखकर अंत में भारतेन्दु जी अपने नौकर को उस ब्राह्मण को कुल रुपये दे देने की आज्ञा दे दी। वह उतना पाकर अतिप्रसन्न हो आशिर्वाद देता हुआ चला गया। इधर मेला देखकर जब यह बाग़ से नीचे उतरे तब उन्हें वारंट मिला। अंत में इनके मित्र बा. माधोदास जी ने उसी समय उस डिगरी के रुपये चुकाए, जिसे बाद को भारतेन्दु जी ने उन्हें लौटा दिया। सं० १६३६ वि० के ज्येष्ठ के 'सारसुधानिधि' भाग १ अंक १६ में पृष्ठ २२६-७ पर भारतेन्दु जी के इसी ऋण पर एक लेख उन्हीं के किसी मित्र द्वारा लिखा गया प्रकाशित हुआ है, जिसका अधिकांश यहाँ उद्धृत किया जाता है। इससे उनकी तत्कालीन परिस्थिति अच्छी प्रकार ज्ञात हो जाती है। 'यह तो उनके गुणों की कथा हो चुकी' अब अवगुणों को सुनिए । पहली अवस्था में इनमें एक उपेक्षा का दोष बड़ा भारी था। सब लौकिक या द्रव्य सम्बन्धी कार्य मात्र में इतनी उपेक्षा उन्होंने की कि अब उसका विषम फल उपस्थित हुआ । यद्यपि बहुत से लोग इनका द्रव्य खा गए और यह नहीं कि इनको उसका ज्ञान न हो । तब भी उन्होंने उपेक्षा की और यद्यपि अनेक कार्यो में इन्होंने विशेष व्यय किया, परन्तु हम मुक्त कंठ से कहते हैं कि