पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५१

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पूर्वज-गण १४१ इनका समधिक द्रव्य सज्जनों की उपस्थित चिन्ता के निवारणार्थ देश हितार्थ, धर्म और मातृभाषा की समुन्नति के अर्थ ब्यय हुआ। यहाँ तक कि जब बहुत सा देना हो गया तो प्रायः स्थावर और अस्थावर विषय सब देनदारों को बाँट दिया। ऐसे ही अनेक लक्ष रुपयों का देना तीन चार बार करके दिया गया। अंतिम समय में भी जब सब देना दिया गया तो कुछ लोगों ने जायदाद लेना स्वीकार नहीं किया और नालिश किया। इस समय में जो कुछ जिनके यहाँ बाकी था वह उनके नीचे दबा रह गया। भवतु, जिन लोगों ने नालिश की थी उनका भी दो तिहाई से ऊपर रुपया वसूल हो गया अर्थात् वास्तव में जो उनका रुपया था उससे कुछ विशेष ही वे लोग पा चुके थे। कारण यह कि एक एक देकर लोगों ने दो दो तीन लिखवाया था। जब नालिश हुई तब बना- रस के सुयोग्य जज सैयद अहमद खाँ बहादुर सी० एस० आई० की आंतरिक इच्छा थी कि जिन लोगों ने व्यर्थ एक का दो किया है उन्हें उचित शासन मिले परन्तु इन्होंने स्पष्ट कहा कि चाहे एक का दो वा चार हो जो जिसको हमने देने को कहा है, वही देंगे। इसी बात पर फिर और किसी बात की अदालत ने साक्षी नहीं ली और जितने द्रव्य के वास्ते उन्होंने स्वीकार नहीं किया वह अदालत ने नहीं दिलवाया। अदालत की तजवीज़ में लिखा है- 'चूँ कि बाबू हरिश्चन्द्र की सत्यता पर अदालत को पूर्ण विश्वास है, इससे उनके स्वीकार और अस्वीकार ही के अनुसार डिगरी दी जाती है और अन्य साक्षी की कोई अपेक्षा नहीं।' 'सोऽम्मत द्विधानां प्रणयैः कृषी कृतो न तेन, कश्चित विभवैर्विमानितां । निदाघ कालेष्विवसोदको ह्रदो, तृष्णा स तृष्णा मयनीय शुष्कवान् ॥ आप यद्यपि धीर हैं। इनको कुछ भी मानसिक खेद नहीं परन्तु 3 ,