पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५३

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पूर्वज-गण १४३ प्रचंड दुःख वायु से कुम्हिला जाय, लोगों को इसका सम्हालना अत्यंत आवश्यक है और इस विषय में क्षणमात्र का अब विलम्ब न हो। 'हरेरिच्छा वलीयसीनान्या कापि गरीयसी'-एक सुजनदुःख दुखी। [ सार सुधानिधि भा० १ अंक १६ सन् १८७६ ( मिती ज्येष्ठ सं० १६३६ )] पूर्वोक्त उद्धरण से तीन सज्जनों से इनकी विशेषतः सहायता करने के लिए प्रार्थना की गई है। पहिले भारतेन्दु जी के भाई हैं, जिन्होंने इस प्रार्थना के पहिले तथा बाद दूसरा वसीयतनामा तथा वख्शिशनामा लिखवाया था। इनका उल्लेख ऊपर हो चुका है। काशिराज बराबर इनकी सहायता करते थे और इनके गुणों पर रीझ कर इन पर पुत्रवत् स्नेह रखते थे। पर ऐसे स्वतंत्रता-प्रिय तथा उदार पुरुष का कहीं रहना या नियमित प्राप्त धन से काम चलाना संभव नहीं था ।* कवि राजा श्यामलदान के लिखे सं० १६३४ ज्येष्ठ कृष्ण ३० रविवार के पत्र से ज्ञात होता है कि मेवाड़ नरेश भी इनकी बराबर सहायता करते थे पर इनके 'अपव्यय" के आगे वह सब सहायता कम ही पड़ती थी। ऐसी ही दशा में सन् १८७८ ई० में वख्शिशनामा लिखा गया। जिससे ननिहाल से प्राप्त होने वाले धन की भी आशा

  • सन् १८७६ ई० के सितम्बर मास के 'हिन्दी प्रदीप' में एक नोट

इस प्रकार है-रत्ना' समागच्छति कांचनेन । हिन्दी भाषा के एक मात्र आधार रसिक, शिरोमणि श्रीयुत् बा० हरिश्चन्द्र को महाराज काशी नरेश ने अपने यहाँ के सरस्वती भंडार (Library) का अधिकारी नियत किया है। सच है रत्न काँचन ही के साथ मेल खाता है।'