पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५४

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१४४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र निराशा में परिणत हो गई। सन् १८८० ई० में पुत्री के विवाह में भी इन्होंने बहुत कुछ खर्च किया था। भारतेन्दु जी इस प्रकार ऋण से दुखित थे और अपनी स्थावर संपत्ति बेचकर उसके परिशोध करते हुए भी अपने स्वाभाविक कार्यो में भी कमी नहीं कर रहे थे, इससे स्यात्- क्रुद्ध होकर इनके अनुज ने दूसरी बार फिर काशीराज से इनके कार्यों का कुछ उलाहना दिया जिस पर महाराज ने, जब यह रामनगर गये, तब इनसे कहा कि 'हरी, गोकुल यहाँ आए थे और तुम्हारे विषय में बहुत कुछ कह रहे थे। अब तो तुम अपनी पुत्री की शादी भी कर चुके हो, यहीं रहा करो। तुम हाथ खर्च के लिये बीस रुपये रोज़ ले लिया करो। वहाँ रहोगे तो तुम पर पैतृकसंपत्ति नाश करने का दोष लगता रहेगा।' भारतेन्दु जी यह सब चुपचाप सुनते रहे और अंत में कहा कि 'आप की आज्ञा पर जो मुझे कथन है वह कल आपको ज्ञात होगा।' यह कह कर वे घर पर लौट आए और अपने लिखने पढ़ने का सामान लेकर पहिले अपने एक महाराष्ट्र मित्र के घर दुर्गाघाट चले गए और वहीं कुछ दिन रहे । इस मित्र का नाम अल्ल कुर्डे कर था पर उसका पूरा नाम न ज्ञात हो सका। यहीं से इन्होंने दो पत्र लिखे-एक काशिराज को और दूसरा अपने छोटे भाई साहब को । उन पत्रों का सारांश यही था कि उन्होंने अब अपने पूर्वजों की संपत्ति खाना छोड़ दिया है। इसी काल में यह प्रायः एक पक्ष तक दुर्गाकुड में केशोराम के बाग में भी रहे थे। इस प्रकार कुछ दिनों तक यह बाहर ही बाहर रहने के अनंतर पुनः अपने पूर्वजों के गृह पर आए थे। इस प्रकार देश, समाज, मातृभाषा आदि की उन्नति तथा अपनी कौटुम्बिक और ऋण आदि की चिंताओं से ग्रस्त होने के