पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५५

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चिन्ता रोग तथा स्वर्गवास १४५ कारण इनका शरीर जर्जर हो रहा था । इसी समय मेवाड़ पति महाराणा सज्जन सिंह के आग्रह तथा श्रीनाथ जी के दर्शन की लालसा से सन् १८८२ ई० में यह उदयपुर गए। इतनी लम्बी यात्रा के प्रयास को इनका जीर्ण शरीर नहीं सह सका। ये बीमार पड़ गए और श्वास, खाँसी तथा ज्वर तीनों प्रबल हो उठे । यों ही प्राणभय उपस्थित था । उस पर एकाएक एक दिन हैजा का इन पर कड़ा आक्रमण हुआ। यहाँ तक कि कुल शरीर ऐठने लगा अभी श्रायुष्य थी, इससे ये बच गए। सं० १६४० चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को लिखे गए नाटक के समर्पण में लिखते हैं-'नाथ ! आज एक सप्ताह होता है कि मेरे इन मनुष्य जीवन का अंतिम अंक हो चुकता, किन्तु न जाने क्या सोच कर और किस पर अनुग्रह करके उसको आज्ञा नहीं हुई । नहीं तो यह ग्रंथ प्रकाश भी न होने पाता । यह भी आप ही का खेल है कि आज इसके प्रकाश का दिन आया ।' अभी ये पूर्णतया स्वस्थ नहीं हुए थे कि शरीर की चिंता छोड़कर वे अपने लिखने-पढ़ने आदि कार्यो में लग गए। दवा भी कौन करता है, जब रोग प्रबल थे सभी को चिंता थी पर जब वे निर्बल हुए तब अन्य सांसारिक विचारादि प्रबल हो गए । अस्तु, रोग इस प्रकार दब गए थे, पर जड़ मूल से नष्ट नहीं हुए थे । रोग दिन दिन अधिक होता गया, महीनों में शरीर अच्छा हुआ। लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। यद्यपि देखने में कुछ रोज तक रोग मालूम न पड़ा पर भीतर रोग बना रहा और जड़ से नहीं गया। बीच में दो एक बार उभड़ आया था पर शांत होगया था। इधर दो महीने से फिर श्वास चलता था, कभी २ घर का आवेश भी हो आता थाः औषधि होती रही, शरीर कृशित तो हो चला था पर ऐसा १० .