पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५६

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१४६ भारतेंदु हरिश्चन्द्र नहीं था कि जिस से किसी काम में हानि होती, श्वास अधिक हो चला । क्षयी के चिन्ह पैदा हुए । एकाएक दूसरी जनवरी से बीमारी बढ़ने लगी। दवा इलाज सब कुछ होता था पर रोग बढ़ता जाता था। ६ वी तारीख की प्रातःकाल के समय जब ऊपर से हाल पूछने के समय मजदूरनी आई तो आप ने कहा कि जाकर कह दो कि हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया छप रहा है पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खाँसी की सीन हो चुकी देखें लास्ट नाइट कब होती है। उसी दिन दोपहर से श्वास वेग से आने लगा कफ में रुधिर आगया। डाक्टर वैद्य अनेक मौजूद थे और औषधि भो परामर्श के साथ करते थे, परन्तु 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।' प्रतिक्षण में बाबू साहब डाक्टर और वैद्यों से नींद आने और कफ के दूर होने की प्रार्थना करते थे, पर करें क्या काल दुष्ट तो सिर पर बढ़ा था, कोई जाने क्या। अन्ततोगत्वा बात करते ही करते पौने दस बजे रात को भयंकर दृश्य आ उपस्थित हुआ। अन्त तक श्रीकृष्ण का ध्यान बना रहा। देहावसान समय में श्रीकृष्ण ! श्रीराधाकृष्ण ! हेराम ! आते हैं मुख दिखलाओ' कहा, और कोई दोहा पढ़ा जिस में से 'श्रीकृष्ण... सहित स्वामिनी', इतना धीरे स्वर से स्पष्ट सुनाई दिया। देखते ही देखते प्यारे हरिश्चन्द्रजी हम लोगों की आँखों से दूर होगए । चन्द्रमुख कुम्हिला कर चारों ओर अन्धकार होगया। सारे घर में मातम का गया. गली गली में हाहाकार मचा और सब काशीवासियों का कलेजा फटने लगा। लेखनी अब आगे नहीं बढ़ती । बाबू साहिब चरणपादुका पर ..' ऐसे लोकप्रिय देश हितैषी के लिये यथा योग्य शोक प्रकाश किया गया था। शोक प्रकाशक तारों और पत्रों के ढेर लग गये