पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६०

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१५० भारतेंदु हरिश्चन्द्र की जरूरत नहीं है, हमारी उंगली के ये छल्ले हमें फूकने के लिए बहुत होगे।' समय तू जो न चाहे कर दिखलावे । चन्द्र में कलंक जीवनचरित्रों ही से मनुष्य का सबसे बढ़कर मनोरंजन होता है । उपन्यास, नाटक आदि भी कल्पित मनुष्यों की जीवनियाँ ही हैं। उत्तम जीवनी कभी भी समय के पीछे नहीं पड़ सकती। किसी महान् पुरुष की जीवनी से यही उपदेश प्रधानत: मिलता है कि मनुष्य क्या हो सकता है, कहाँ तक ऊँचे उठ सकता है और मानव समाज के लिये वह कहाँ तक हितकर हो सकता है इनको पढ़ने से हमें उत्साह मिलता है, हमारा साहस बढ़ता है । महान व्यक्तियों से, जो अब नहीं रह गए हैं या वर्तमान हैं, हम बराबर नहीं मिल सकते पर उनकी सच्ची जीवनी यदि हमारे पास है तो हम सर्वदा उनसे सत्संग रख सकते हैं। पर मनुष्य तभी मनुष्य रहेगा जब उसके दोष आदि भी प्रकट कर दिए जायँगे । मनुष्य देवता नहीं है, उसमें दोष रहेंगे, किसी में एक है तो किसी में कुछ और है। यदि एक महात्मा की जीवनी से हम दोषों को निकाल देते हैं तो हम ऐसा निर्दोष आदर्श उपस्थित कर देते हैं जिसको अनु-गमन करने का लोग साहस छोड़ बैठेंगे । उसे मनुष्योपरि या दैवी समझेंगे, जिससे जीवनी लेखक का परिश्रम निष्फल सा हो जाता है। तात्पर्य इतना ही है कि जीवनचरित्र में गुणों का विवेचन करते हुए दोषों का भी, यदि हों, तो विश्लेषण अवश्य कर देना चाहिए। सत्य कटु होता है और नीति भी कहती है कि 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यप्रियम् ।' पर सच्चे दिल से मृत महात्माओं के विशिष्ट दोषों का उल्लेख अवश्य होना ही चाहिए।