पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६१

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चंन्द्र में कलंक १५१ साधारणतः कवि सौंदर्योपासक होता है। सौंदर्य से केवल स्त्रो-सुलभ सौंदर्य ही से नहीं तात्पर्य है । गुलाब में सौंदर्य है तो उसकी नई डाल के नये निकले हुए प्याजी रंग के काँटों में भी कुछ न कुछ सौंदर्य रहता है । बड़ों के गुण तथा दोष दोनों ही में कुछ न कुछ सार होता है । गोस्वामी तुलसीदास जी से भक्त- श्रेष्ठ को भी इसी सौंदर्योपासना ही से भक्ति की दीक्षा मिली थी। भारतेन्दु जी की जीवनी देखने से यह ज्ञात होता है कि 'घर के शुभचिंतकों' ने उन्हें जितना ही 'लायक' बनाने का प्रयत्न किया उतने ही वे मीराबाई के समान 'नालायक' होते गये और दोनों ही पक्ष अंत तक अपने अपने प्रयास में डटे रहे । फलतः आरम्भ में यह परकीया नायिकाओं के फेर में कुछ दिन पड़ अपने चित्त को सान्त्वना देते रहे पर कुछ ही दिन बाद इन्होंने अपने को सँभाला और श्रीकृष्ण भगवान के रंग में ऐसे रंग गए कि अंत समय तक 'श्रीकृष्ण सहित स्वामिनी' कहते रह गये। एक बात और पहिले ही कह देना चाहिए। इनकी प्रवृत्ति कुछ साधुओं की सी थी। धन के विषय में यह कथन बिल्कुल ही ठीक है। अभी दस बीस हजार आ गया तो दोनों हाथों से लुटाकर बाँट- बूट सफाचट कर दिया। यह फ़िक्र नहीं रहती थी कि कल चिट्टियों के लिये दो रुपये किसी से उधार लेने पड़े। संचयन को बुद्धि इनमें बिल्कुल थी ही नहीं। शरीर पर के कपड़े तक दूसरों को देकर स्वयं ठंढे में बैठे रह जाना साधु ही का काम था। वेश्या का सहवास इनके लिये आवश्यक ही था । आज इस बहाने तो कल उस बहाने जलसे होते रहते थे। गुणी गायिका अपना गुण अवश्य दिखाएगो तथा गुण-ग्राही पुरुष उसकी प्रशंसा करेगा ही। इस प्रकार वार्तालाप होते हुए आपस में परिचय होना अनिवाय था। अंधेर नगरी में उस समय की प्रसिद्ध