पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६५

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चन्द्र में कलंक १५५ पर सुगमता से जाते आते हैं। ऐसे स्थान में रहने के कारण भारतेन्दुजी की इसपर प्रायः नज़र पड़ती रहती थी और जो अपने घर के सभी प्राणियों से अलग सा था उसपर ऐसी एका- किनी पड़ोसिन का प्रभाव बढ़ता गया। यह अपने ही घर में एक प्रकार बिराने से होकर रहते थे, इसलिये इनका मन घर पर नहीं लग रहा था । उनका वही हाल था जैसा किसी ने लिखा है कि 'मरों को सारी दुनिया रोवे हम जीतों को रो बैठे । मरे से मुर्दा होते हैं हम जिंदे मुर्दः हो बैठे।' बड़े घरों के बिगड़े दिल युवकों को ऐसे समय सहायता करने वाले बहुत होते हैं। इन्हें भी इनके घर पर आने जाने वाले एक ऐसे ही महात्मा मिले, जिन्हों ने इनकी उस पड़ोसिन से जान पहिचान करा दी। बह इनकी आश्रिता होगई । यह अत्यंत नम्र, बिनयशील तथा सुचरित्र थी पर भाग्य के दाष से वह उस अवस्था को पहुँच गई थी। यह शिक्षिता भी थी और भारतेन्दु जी के समागम से उसने हिन्दी भी अच्छी तरह सीख ली। बंगला में 'चन्द्रिका' उपनाम से बहुत से पद बनाये हैं और हिन्दी में बंगला से तीन उपन्यासों का अनुवाद भी किया है। इनके नाम राधारानी, सौंदर्यमयी और चन्द्रप्रभा पूर्ण प्रकाश हैं। राधारानी का समर्पण यों लिखा है- "हमारे आर्य सभ्य शिष्ट समाज की रीति अनुसार मेरे परि- चय की सर्व साधारण में योग्यता नहीं और न इस क्षुद्र ग्रन्थ का अनुवाद कोई ऐसा स्तुत्य कृत्य है, जिसके धन्यवाद संचय करने को मुझे प्रकट होना आवश्यक है । केवल इतना ही कहना होगा, शुकांगना यत्र गिरो गिरंति अवेहितम्मंडनिमिश्रगेहम् ।' जिस पूज्य प्राणप्रिय देवतुल्य स्वामी की आज्ञा से इसका अनुवाद मैंने पनी अबल भाषा में किया है उन्हीं के कोमल कर कमलों में यह समर्पित भी है और उन्हीं की प्रसन्नता मात्र इसका फल है।"