पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६६

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१५६ भारतेंदु हरिश्चन्द्र प्रेम तरंग में इसके चालीस से अधिक पद संगृहीत हैं। इनमें से एक यहाँ दिया जाता है- राखो हे प्रानेश ए प्रेम करिया जतन । तोमाय करेछि समर्पन । जत दिन रबे प्रान श्री चरने दिश्रो स्थान । हरिश्चन्द्र प्रान धन एही अकिंचन । 'चन्द्रिका' हृदय-धन नाहिक तोमा बिहन । तब करे ते आपोन करेछि जीवन मन ।। पूर्वोद्धृत उद्धरण तथा पद दोनों ही से ज्ञात होता है कि यह कितनी नम्रताशील थी और भारतेन्दु जो पर उसका कितना प्रेम बढ़ गया था। इसी प्रकार भारतेन्दु जी का भी उसपर बहुत स्नेह था। उनका एक पत्र नीचे दिया जाता है, जिससे यह स्पष्ट हो जायगा। "विदेश से हम लौट कर न आवे तो इस बात का जो हम यही लिखते हैं ध्यान रखना । ध्यान क्या अपने पर फर्ज़ सम- झना । किन्तु हम जल्दी जीते जागते फिरेंगे। कोई चिंता नहीं है ! सिर्फ संयोग के वश होकर लिखा है । यदि ऐसा हो तो दो चार बातों का अवश्य ध्यान रखना । यह तुम जानते हो कि तुम्हारी भाभी की हमको कुछ चिंता नहीं, क्योंकि तुम्हारे ऐसा देवर जिनका वर्तमान है उसको और क्या चाहिए। दो बात की हमको चिंता है। प्रथम कर्ज, दूसरी मल्लिका की रक्षा । थोड़ी सी डिगरी जो बच गई है, उसको चुका देना। और जीवन भर दीन हीन मल्लिका की जिसको हमने धर्मपूर्वक अपनाया है रक्षा करनी। कृष्ण को ऊँची शिक्षा संस्कृत अङ्गरेजी और बंगला की हो । जो ग्रंथ हमारे या बाबू जी के बे छपे रह जायें वे छौं । इस पत्र को हमने कलेजा फाड़ फाड़ कर चार दिन में अर्थात् अछनेरा से