पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६७

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मित्रगण १५७. शुरू करके भिलाड़े में खतम किया है । इसपर हँसना मत, दुखी होना, क्योंकि अभी तो अणुमात्र भी मरने की सम्भावना नहीं है । शारीरिक कुशल है तनिक भी चिंता न करना।" भारतेन्दु जी को स्वयं अर्थ संकोच रहता था इसलिये इसके कालयापन के लिये इन्होंने अपनी प्रकाशित पुस्तकों का कुछ स्टॉक इसे दे दिया था, जिसकी बिक्री से इसका काम चलता था। चौक की सिख संगत के सामने के एक मकान में इसका स्टॉक रहता था और इसका कार्यालय का नाम 'मल्लिका चन्द्र एंड कम्पनी' रखा गया था। भारतेन्दु जी की मृत्यु के बाद तक यह कार्यालय रहा । बाबू गोकुलचन्द्र जी भी अपने जीवन भर इसकी सहायता करते रहे। बहुत दिनों मित्रगण. किसी असाधारण पुरुष की जीवनी में उसके मित्रों का भी देना आवश्यक होता है, पर इससे यह तात्पर्य नहीं कि उसकी प्रकृति उन मित्रों के कारण परिवर्तित हुई होगी प्रत्युत इसके विपरित यही ज्ञात होगा कि जो कोई उसका साथ करता था वह भी उसी के रंग में रँग जाता था। यही बात भारतेन्दु मंडल पर भी घटित होती हैं, जैसे प्रेमधन जी आदि की जीवनी से ज्ञात होगा । चन्द्र की ज्योत्स्ना में नक्षत्रगण का प्रकाश आप ही और भा लिख उठता है । भारतेन्दु जी के मित्रों की संख्या भी बहुत थी, कारण कि जो लोग इन्हें हानि पहुँचाते थे या इनसे द्वेष रखते थे, उन्हें भी वे अपना मित्र ही समझते थे। इसीसे इनके मित्रगण ने इन्हें 'अजातशत्रु' तक कहा है। भरतपुर-नरेश बल्देवसिंह की मृत्यु पर उनके अल्पवयस्क पुत्र बलवन्तसिंह को गद्दी से हटाकर उनके भ्रातृ-पुत्र दुर्जनसाल