पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१६८

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१५८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने उस पर अधिकार कर लिया। भारत-सर्कार ने सेना भेज कर बलवन्तसिंह को गद्दी दिला दी और दुर्जनसाल अपने दो पुत्रों के साथ प्रयाग में रहने के लिए भेज दिए गये। इन्ही में एक राव कृष्णदेव शरणसिंह भी थे, जी 'गोप' उपनाम से कविता करते थे। काशी ही में उस समय बॉर्ड्ज़ स्कूल था, जिसमें धनाढ्यों तथा राजाओं के पुत्रगण शिक्षा पाते थे। यहीं इन दोनों मित्रों का समागम हुआ और यह गाढ़ी मित्रता अंत तक एकरस रही। यह मित्रता ऐसी थी कि एक रचना 'माधुरी, रूपक को लेकर यह भ्रम लोक में फैल गया था कि यह इन दोनों मित्रों में से वास्तविक रचयिता की न होकर दूसरे अर्थात् भारतेन्दु जी की प्रणीत है। यह राव साहब ही की रचना है, यह अब निश्चित हो गया है, क्योंकि इसके एक मात्र पद में इनका उपनाम गोप' आया है । इस छोटे - से रूरक में ब्रजभाषा का भी पुट विशेष है। इन्होंने चन्द्रावली नाटिका का ब्रजभाषा में रूपांतर किया था। हरिश्चन्द्र मैगजीन के तीसरे अंक में इनका प्रेम संदेशा',छपा है, जिसमें सोलह पद आसावरी और सोलह पद सारंग राग के हैं । चौथी संख्या में "मानचरित्र' प्रकाशित हुआ है, जो रूपक के समान आलापादि युक्त छोटी सी रचना है। इसमें पद्य ही अधिक हैं। इसमें भारतेन्दु जी का भी एक पद इन्होंने रखा है। चन्द्रिका में एक दोहावाली भी प्रकाशित हुई है, जिसमें पैंतीस दोहे हैं। यह भी अपने मित्र ही के समान अनन्य कृष्णभक्त थे और तदीय समाज के सभ्य भी थे। वह ऐसे नम्र तथा शीलवान थे कि एक बार यह उसके किसी अधिवेशन में नहीं आ सके तो उसके लिये विशेष रूप से लिखकर क्षमा प्रार्थना की थी। इन्हें बाग तथा गायन वादन का बहुत शौक़ था और उसमें कुशल भी थे । यह