पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६० नाटक का निर्माण किया था। यह तथा राजकुमार जगमोहनसिंह दोनों ही नाटक खेलने में भारतेन्दु जी के साथ पार्ट भी लेते थे। विजयराघव गढ़ के राजकुमार ठा० जगमोहन सिंह कक्षवाहे क्षत्रिय थे। यह सन् १८६६ ई० में विद्याध्ययन के लिये काशी आए और यह भी सन् १८८० ई० तक यहीं रहे । इन्होंने अंग्रेजी संस्कृत, हिन्दी आदि कई भाषायें सीखी । भारतेन्दु जी से इनसे बहुत स्नेह हो गया और यह उनके सत्संग से मातृभाषा की सेवा में दत्त-चित्त हो गए । इनकी प्रकृति भारतेन्दु जी से कुछ मिलती- जुलती सी थी । दोनों मित्रों में परस्पर बहुत स्नेह हो गया था और वे बराबर मिलते रहते थे। मेघदूत को प्रस्तावना में यह लिखते हैं कि 'मैंने अपने श्री बा० हरिश्चन्द्र जी की भी सहायता इसमें कहीं कहीं ली है। हरिश्चन्द्र जी विख्याल भाषा के कवि और नाटक के कर्ता हैं। उनका हृदय भावुक है और सरस कविता बड़ी अनूप होती है। और मैं समझता हूँ कि पश्चिमोत्तर देश क्या भारतवर्षीय कवि मुकुट के अलंकार हैं ।' कालिदास के छोटे काव्यों का इन्होंने भी अनुवाद किया है । इन्होंने गद्य पद्य दोनों ही लिखे हैं। एक प्रेम रस में और दूसरा माधुर्य में डूबा हुआ है। विन्ध्याचल के पार्वत्य प्रांत में निवास करने के कारण इनकी प्रकृति पर विशेष प्रेम था और इस कारण इनके गद्य काव्य में प्राकृतिक शोभा. का वर्णन बहुत अच्छा हुआ है । प्रेम-मार्ग के यह सच्चे पथिक थे | इनका श्यामास्वप्न प्रसिद्ध है। अन्य कई पुस्तकें भी लिखी हैं । इन लोगों के सिवा सूर्यपुराधीश राजराजेश्वर सिंह, बड़हर के राजा केशवशरण सिंह साह,छपरा के बा० देवीप्रसाद 'मसरक' आदि भी भारतेन्दु जी के सहपाठी थे। मिर्जापुर निवासी पं० बद्रीनारायण उपाध्याय चौधरी