पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७३

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मित्रगण १६३ ब्राह्मणों को सरस्वती क्षेत्र में इतर वर्णो का बढ़ना कभी सह्य नहीं है, यह परंपरा सी चली आती है। विश्वामित्र सहज ही में ब्राह्मण नहीं हुए थे। स्यात् सन् १८८३ ई० की बीमारी से भारतेन्दु जी के अच्छे होने पर इन्होंने तीस शेरों का एक कसीदा कह डाला है, जिसमें से-दो चार यहाँ उद्धृत किए जाते हैं- बनारस की जमीं नज़ॉ' है जिसकी पाय बोसी२ पर । अदब से जिसके आगे चर्ख ने गर्दन झुकाई है । वही महतावे हिन्दुस्ताँ वही गैरतदिहे५ नैयर६ । कि जिसने दिल से हर हिन्दू के तारीको मिटाई है ।। बहुत से लोगों का दावा है वतन की खैरख्वाही का। कोई पूछे तो इनसे चाल यह किसकी उड़ाई है। उसे क्या कोई दिखलाएगा अपने खामः का जौहर। रसा है वो खुद उसके जेहन११ की वाँ तक रसाई है । लाला श्रीनिवासदास मथुरा के रहने वाले थे पर दिल्ली में सेठ लक्ष्मी-चंद की कोठी के मुनीम होकर वहीं रहते थे। इन्होंने हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत तथा अंग्रेजी में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी। यह बड़े व्यवहार कुशल भी थे। यह भी छोटी ही अवस्था में मरे पर इसी बीच इन्होंने तप्ता-संवरण, संयोगिता स्वयंवर तथा रणधीर-प्रेम-मोहिनी नामक तोन नाटक और परीक्षागुरु उपन्यास लिखा है। यह मुहाविरेदार बोलचाल की भाषा लिखते ये। तप्तासंवरण सन् १८७३ ई० में हरिश्चन्द्र १आनंदित। २पैर चूमना, । अाकाश । ४चन्द्रमा । लजा- कारक । ६सितारा। अंधकार। 'लेखनी, कलम । गुण, हुनर । १°पहुँचा हुअा सिद्ध । ११बुद्धि ।