पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७५

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मित्रगण १६५ भारतेन्दु जी से मिलने की अदमनीय आकांक्षा के मार्ग में उनके पिता विन्न रूप हो रहे थे। वे यहाँ तक पुरानी रूढ़ि के महापुरुष थे कि यावनी भाषा के शब्द तक मुख से नहीं निकालते थे। आपने कहीं छूटती बंदूक का दृश्य देख लिया था, जिसका वर्णन कैसी अनूठी भाषा में आप करते हैं कि 'काहू नै लौह नलिका में श्याम चूर्ण भरिकै अग्नि संस्कार कर दयौं तौ बड़ाम सो शब्द भयौ ।' भला वे कैसे भारतेन्दु से प्रसिद्ध 'नास्तिक' से अपने पुत्र को मिलने देते। अंत में गोस्वामी राधाचरण जी ने पिता के शयन करने पर भारतेन्दु जी से मिलने का निश्चय कर उनसे यह संदेश कहलाया कि 'कृपया हमारे आने के पहिले ही आप सोने न चले जाइएगा।' भारतेन्दुजी ने उत्तर भेजा कि 'आप के पिता जब चाहें शयन करें' पर मैं बिना आप से मिले सो ही नहीं सकता।*

  • विशाल भारत के श्रीवियोगी हरि जी ने गोस्वामी राधाचरण जी

के कुछ संस्मरण प्रकाशित किए हैं जिसमें से कुछ अंश यहाँ उद्धृत किया जाता है। "पिता जी के सो जाने पर रात को एक बजे एक दरवान को घूस देकर मिला लिया और एक जासूस के रूप में, खिड़की के राह घर से निकल भागा । उधर सहृदय हरिश्चन्द्र जी प्रतीक्षा कर रहे थे । हम दोनों बड़े प्रेम से मिले और लगभग डेढ़ घंटे तक साहित्य और समाज पर जी खोलकर बातें करते रहे।" "उस रात की दो-एक बात तो याद होंगी ही ?” मैंने बीच में टोक कर पूछा। "हाँ, सुनो, एक बात याद है बाबू साहब ने कहा कि ब्राह्म-समाज ने आर्य-संस्कृति पर आक्रमण अवश्य किया है, पर हमारे लुप्त प्राय प्राचीन