पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१८०

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१७० भारतेंदु हरिश्चन्द्र इनकी उनपर कुछ अश्रद्धा हो गई थी पर जब पुरातत्व पर बातचीत होने लगी और प्राचीन ग्रन्थों के इनके संग्रह को देखा तब वे इनके परम मित्र हो गए। पंड्या जी को उसी समय इन्होंने पुरावृत्तशिक्षा दी थी। श्रीमद्भागवत की प्राचीन हस्तलिखित प्रति को एशियाटिक सोसाइटी में ले जाकर भागवत के रचनाकाल की प्राचीनता इन्हीं ने सिद्ध की थी। एक सौ अट्ठाइस जिल्दों में संगृहीत इनके लेखों ही से इनकी विद्वत्ता, परिश्रम तथा मनन- शीलता जानी जा सकती है। इन्हीं के द्वारा भारतेन्दु जी को उनके पुस्तकालय का एक लक्ष मूल्य भारत सर्कार से मिल रहा था, पर जिसे उन्होंने नहीं दिया । पं० रामशंकर व्यास इनके अंतरंग मित्रों में से थे। यह एक योग्य विद्वान तथा कार्यदक्ष पुरुष थे। यह हिन्दी के अच्छे लेख्नक थे तथा संस्कृत, फारसी, बंगला और गुजराती के अच्छे ज्ञाता थे। यह कुछ दिन कविवचन-सुधा के संपादक भी रहे और कई पत्रों में लेख दिया करते थे। यह स्वभाव ही से बड़े हास्यप्रिय थे। भारतेन्दु जी के यहाँ इनका बराबर आना जाना था और उनके स्थापित सभी सभाओं के यह सभासद रहे। इन्होंने 'सारसुधानिधि' में बा० हरिश्चन्द्र जी को भारतेन्दु की पदवी प्रदान करने का प्रस्ताव किया था, जिसका हिन्दी जगत् में बड़े आदर से समर्थन किया था। भारतेन्दु जी की मृत्यु पर इन्होंने 'चंद्रास्त' लिखा था, जिससे ज्ञात होता है कि उन्होंने अंत तक मित्रता निबाही थी। पं० रामेश्वरदत्त सरयूपारीण ब्राह्मण थे । यह क्वीन्स कालेज में अध्यापक थे। यह भारतेन्दु जी के यहाँ बराबर आते जाते थे और उनके परम मित्र थे। उनके साथ यह यात्रादि में भी जाते थे। एक बार जब भारतेन्दु जी कलकत्ते जा रहे थे तब वह