पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१८३

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मित्रगण १७३. चन्द वैसो अमित अनन्द कर भारत को, कहत कविन्द यह भारत को चन्द है। कैसे अब देखें बतावै, कहाँ पावें, हाथ कैसे वहाँ श्रावेहम कोई मतिमन्द है ।। श्रीयुत सकल कविंद कुल, नुत बाबू हरिचन्द । भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद ।। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म सन् १८२० ई० में हुआ था। सन् १८४० ई० में परीक्षायें पासकर यह विद्यासागर उपाधि से विभूषित हुए । अध्ययन कार्य में उन्नति करते हुए यह पाँच सौ मासिक वेतन पाने लगे थे, पर सन् १८५७ ई० में डाइरेक्टर से मनमुटाव होने के कारण इन्होंने वह कार्य त्याग दिया और स्वभाषा तथा विद्या-प्रचार में दत्तचित्त होगये। भाषा के लिये इन्होंने इतना कार्य किया था, कि वे बंगला साहित्य तथा साधु भाषा के गुरु कहलाए । २६ जुलाई सन् १८६१ ई० में इनकी मृत्यु हुई और इनके स्मारक में मेट्रोपॉलिटन कालेज बनवाया गया था। इनके तथा भारतेन्दु जी के बीच अधिक स्नेह था और दोनों ही एक पथ के पथिक थे। एक दूसरे की विलक्षण प्रतिभा, मान, भाषा-भक्ति तथा देश-हित-कार्य को अच्छी प्रकार जानते थे। दोनों ही सज्जन अपनी अपनी आधुनिक भाषाओं के जन्नदाता थे। विद्यासागर के काशी आने और भारतेन्दु जी से भेंट करने का उल्लेख हो चुका है। इनकी माता भी काशीवास करने के लिये साथ आई थीं और विद्यासागर जी उन्हें भारतेन्दु जी ही की संरक्षा में यहाँ छोड़ गये थे। एक बार जब विद्यासागर एक मंदिर में दर्शन करने गये और वहाँ के पंडे इनसे प्राप्त धन से संतुष्ट न होकर इन्हें कोसने लगे कि 'तुमने हमारी सेवा नहीं की इससे तुम्हारी यात्रा सुफल न होगी और देवता तुमसे असंतुष्ट रहेंगे, तब विद्यासागर जी ने शांति से उत्तर दिया था कि 'भाई, तुम्हारी सेवा से माता-पिता की सेवा