पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१८८

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'दान की वार्ता १७६ नन्दकिशोर लाल रोड़ा नामक एक युवक सज्जन ने जब भारतेन्दु जी के यहाँ पहिले-पहिल आना शुरू किया तब एक दिन इन्होने उनसे कहा कि यदि तुम हमारे यहाँ आना-जाना बनाए रखना चाहते हो तो कविता किया करो। दूसरे दिन इन्होंने प्रयत्न करके एक दोहा-सा तैयार किया और ले जाकर इन्हें सुनाया । उनका उत्साह बढ़ाने के लिए भारतेन्दु जी ने उन्हें कुछ रुपये पुरस्कार दिये तथा प्रशंसा कर इसी प्रकार प्रयास करते रहने के लिये उत्साहित किया। मैनपुरी-निवासी पं० काशीनाथ चतुर्वेदी नामक एक सज्जन, जिन्हें सहस्रों कवित्त कंठाग्र थे, कुछ दिन काशीवास करने के लिये यहाँ आए थे। यह भारतेन्दु जी के यहाँ, जब तक काशी में रहे, आश्रित होकर रहे थे। साधारण कविता भी करते थे पर इनकी विशेषता यही थी कि अच्छे-अच्छे सुकवियों की चुनी हुई कविताएँ पढ़ कर श्रोताओं का मनोरंजन करते थे। जब तक यह इनके यहाँ रहे, इनका कुल व्यय भारतेन्दु जी अपने पास ही से देते रहे। एक दिन भारतेंदु जी के यहाँ कवि-सभा लगी हुई थी। किसी ने समस्या रूप में एक मिसरा पढ़ कर उसकी पूर्ति चाही। मिसरा यों हैं:- कपड़ा जला के अपना लगा आग तापने । भारतेन्दु जी ने उपस्थित सज्जनों की ओर देखा । उनमें एक अल्पवयस्क विद्यार्थी भी था, जिसने उसे पूरा करने की आज्ञा माँगी। आज्ञा मिलने पर उसने कहा कि :- ऐसा भी चूतिया कहीं देखा है आपने । कपड़ा जला के अपना लगे आग तापने ।।