पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१८९

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१८० भारतेंदु हरिश्चन्द्र भारतेन्दु जी उस बालक पर अति प्रसन्न हुए और उसे दस रुपये पुरस्कार देकर कहा कि 'तुम में कवित्व शक्ति का बीज है, धीरे धीरे अभ्यास करते रहो, कभी सुकवि हो जाओगे।' एक वृद्ध सज्जन, जो भारतेन्दु जी के यहाँ बहुत आते-जाते थे, कह रहे थे कि एक बार उनके एक नौकर ने भाजी लाने के लिये हमसे चार आने पैसे माँगे । इसका कारण पूछने पर उसने उत्तर दिया कि बाबू साहब के पास इस समय पैसे नहीं हैं । उक्त सज्जन को न मालूम क्या सूझी कि यह भारतेन्दु जी के पास पहुँचे और उनसे कहने लगे कि इस प्रकार की बातों से हुजूर की बड़ी बदनामी होती है। यदि हुकुम हो तो हम रोज़ पूरा सामान हुजूर की खिदमत में भेज दिया करें, जिसमें किसी को कुछ मालूम न हो।' भारतेन्दु जी इन पर यह सुनते ही बहुत बिगड़े और जो न कहने को था वह भी कह डाला। यह बेचारे खैरख्वाही दिखलाने गए थे, अपना सा मुहँ लेकर लौट आए। दो दिन बाद भारतेन्दु जी ने इनको पत्र लिख कर बुलवाया और उन्हें दस सहस्र नोट दिखला कर कहा कि 'तुम बड़े लालची आदमी हो, इससे हम इसे तुम्हें दे रहे हैं, आज ही अभी यह आया है, तुम झटपट इसे ले जाओ, नहीं तो बचेगा नहीं।' उक्त सज्जन ने शर्मा कर उसे ले जाने से इन्कार कर दिया, तब उन्होंने कहा कि 'अच्छा जाओ भैया से कह दो कि कुछ रुपया आया है, लेना हो तो ले जायँ, उन्हें भी रुपये की बहुत जरूरत रहती है।' उक्त सज्जन बाबू गोकुलचन्द्र जी के पास खबर देने गए, जो स्नानादि से निपट कर पूजा ध्यान कर रहे थे। यह सुन कर तथा संध्या पूजा निपटा कर बा० गोकुलचन्द्र जी जब बड़े भाई के पास पहुंचे, तो उस समय तक साढ़े छः सहस्र के नोट बचे "