पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१९१

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१८२ भारतेंदु हरिश्चन्द्र सुन लो, कवित्त सवैया फिर बनेगी।' यह कह कर निम्नलिखित शेर पढ़ा :- रुखे आईना वश पर दिल तो जा-जा कर फिसलता है। खुदाई दाग़ चेचक से ज़रा ठहराव मिलता है ।। एक सज्जन अपने पिता के पुराने ख्यालात के कारण अंग्रेज़ी न पढ़ कर फारसी ही का अभ्यास किया करते थे। एक दिन भारतेन्दु जी के सामने किसी अन्य सज्जन ने उनसे कहा कि तुम अंग्रेज़ी क्यों नहीं पढ़ते, फारसी पढ़ कर क्या करोगे ? भारतेन्दु जी ने उत्तर दिया कि इनके उम्र वाले पुरुष के लिये अब एक ही विषय में योग्यता कर लेना उचित है, कई कई विषयों का अपूर्ण ज्ञान रखना अच्छा नहीं यह कहकर उन्होंने फारसी का एक शेर पढ़ा:- कस्बे कमाल कुन कि अज़ीज़ जहाँ शवी। कसबे कमाल हेच न अज़द अज़ीज़ मन ।। (अर्थ-किसी हुनर को पूर्ण रूप से प्राप्त करो जिससे लोक-- प्रिय हो । ऐ मेरे प्रिय ! अपूर्ण विद्यावाला कुछ भी नहीं कमा सकता।) एक दिन भारतेन्दु जी के छोटे भाई गोकुलचन्द जी ने इनसे कहा कि दीवानखाने का बड़ा शीशा, जो कॉरनिस पर रक्खा हुआ है, उसके नीचे का अंश कुछ दूर तक न मालूम कैसे चटक गया है। भारतेन्दु जी ने उत्तर दिया कि कॉरनिस पर किसी नौकर ने जलती बत्ती रख दी होगी, जिसकी गर्मी पाकर शीशा चटक गया होगा। यह सुन कर बा० गोकुलचन्द जी ने कहा कि नौकरों पर अवश्य जुर्माना करूँगा, ये सब इसी तरह चीज़ चौपट कर देते हैं। भारतेन्दु जी ने कहा कि भाई