पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र वे ड्योढ़ी पर पहुंचे तब दैवात् एकाएक उस घड़ी का अलार्म बजने लगा। इससे पहरेवालों को शक हुआ और उन लोगों ने जब इनकी तलाशी ली तब यह घड़ी निकल आई। इधर यह शोर गुल सुन कर साहब बाहर निकल आये और कुल वृत्तांत सुन कर नौकरों पर बेतरह बिगड़े कि 'इस प्रकार सज्जनों के साथ दुर्व्यवहार करना होता है, यह घड़ी तो मैंने खुद बाबू साहब को भेट दी थी, उसे झट उन्हें लौटा दो ।'उन सबों को इस प्रकार डाँट कर बाबू साहब से कहने लगे कि 'आप ने पहिले ही इन सब उजड्डों से क्यों नहीं कह दिया कि मुझे यह घड़ी भेंट में मिली है।' भारतेन्दु जी जब कलकत्ते जाते थे तब वे प्रायः एक जौहरी के यहाँ ठहरते थे जिनका नाम स्यात् छन्नू जी था। एक बार उन्हीं जौहरो के एक बंगाली मित्र कलकत्ते से कहीं बाहर जा रहे थे। उन्हें स्टेशन तक पहुँचाने के लिये वह जौहरी महाशय, भारतेन्दु जी, राय लल्लन जी आदि भी साथ आए थे। जब ट्रेन चलने को हुई तब उक्त बंगाली महाशय की एक रक्षिता, जो उन्हें पहुँचाने ही के लिए साथ आई थी, उनके गले में हाथ डाल कर बिदा होने लगी, पर वह इस प्रकार इतने देर तक बिदा होती रही कि रेलगाड़ी स्टेशन के बाहर निकल गई और उक्त महाशय को लौट आना पड़ा। इस पर भारतेन्दु जी ने एक सवैया पढ़ा था, जो इस प्रकार है :- बाल सों लाल बिदेस के हेत हरे हँसि कै बतिया कछु कीनी । सो सुनि बाल गिरी मुरझाय धरी परि धाय गरे गहि लीनी ।। मोहन प्रेम-पयोधि भयो जुरि दीठि दुहूँ कि गई रस भीनी । माँगे बिदा औ बिदाको करै मिलि दोऊ बिदा को बिदा करि दीनी ।।