पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१९७

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१८८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र दे दिया। यह इधर झाँझ बजा रहा था कि वे भोजन करने उठकर ऊपर चले गए। लड़के के पिता जी ने वह डिब्बा पहरे- दार के पास जमा कर दिया और घर चले गए। कई दिनों के अनन्तर एक दिन भारतेन्दु जी ने लड़के से पूछा कि क्यों जी घर पर माँझ बजा कर खूब आनन्द से रामायण गाते हो न ? लड़के ने कहा कि बाबू साहब वह झाँझ तो पिता जी ने पहरेदार को सौंप दिया। मेरे पास कहाँ है कि गाऊँ बजाऊँ। अंत में भारतेन्दु जी ने वह डिब्बा जो दस तोले का था, उस लड़के को 'दिलवा दिया। पंडित जी ने घर पहुँच कर ब्राह्मणी के लिये उसके गहने बनवा दिए और लड़के को एक जोड़ झाँझ खरीद दिया। एक दक्षिणी ब्राह्मण इनके दरबार में नित्य आने लगे। वे किसी से कुछ कहते न सुनते और दो तीन घण्टे बैठ कर अपने 'घर चले जाते । इस प्रकार कुछ दिन बीतने पर एक दिन भारतेन्दु जी ने उनसे पूछा कि “महाराज आप हमारे यहाँ नित्य आते हैं. पर अपना अभिप्राय कुछ भी नहीं बतलाते, इसका क्या कारण है ? आप के संकोच से मुझे बहुत कष्ट होता है। यथाशक्ति आपकी इच्छा पूरी की जायगी, आप कहिए अवश्य ।” ब्राह्मण ने बड़ी नम्रता तथा लज्जा से कहना शुरू किया कि “बाबू साहब, मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूँ और हमें दो कन्याओं की शादी करनी है। एक कन्या मेरी है और एक मेरे बड़े भाई की है। दो वर्ष हुए कि भाई गत हो गए अब दोनों हमारे ही माथे की बोझ हैं। इसी दुःख में काशी आया और दाता की खोज में था कि एक ब्राह्मण से यह पता पाकर कि राजा हरिश्चन्द्र, बलि, कर्ण के समान महादानी एक अग्रवाल-कुल-भूषण बाबू हरिश्चन्द्र हैं, जिनके यहाँ से अभी तक कोई विमुख नहीं फिरा है, मैं आप के