पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१९८

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दान को वार्ता १८६ दरबार में आने लगा। आप की भव्य मूर्ति, प्रसन्न मुख, स्नेह, विद्वत्ता तथा तथा विद्वानों और कवियों का जमघट देख कर मुझे विक्रम और भोज याद आते । घर से मैं आप से अपनी इच्छा निवेदन करने ही आता हूँ पर आप के सौम्य सदय हृदय को अपना कष्ट कह कर कैसे दुखी करूँ यही विचार कर रह जाता हूँ। यदि आज श्राप न पूछते तो रोज की तरह आज भी मैं चला जाता।' इतना कहते कहते वह ब्राह्मण रोने लगा। भारतेन्दु जी ने दयार्द्र होकर अपनी उँगली से एक हीरे की अंगूठी उतारकर उसे देते हुए कहा कि महाराज, मैं दौलत फू कने वाला और फकीर हूँ। मेरे यहाँ आप ही धन का अभाव है। यह अँगूठी आप ही के भाग्य से बच रही थी, इसे लीजिए । यह एक सहस्र से कम में न जायगी। इतने में आप का काम भी चल जायगा । इसका आप पर कुछ एहसान नहीं। बा० शिवनन्दन सहाय जी ( भारतेन्दु जीवनी पृष्ठ ३२०) लिखते हैं कि 'इनके द्रव्याभाव, दातव्य तथा ऋण का हाल जान कर और यह देख कर कि इनके स्वर्गगमन के समय किसी की एक फूटी चित्ती भी इनके जिम्मे नहीं निकली, लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उस आनन्द में श्रीमान काशी-नरेश ने यह दोहा कहा था- यद्यपि आप दरिद्र सम, जान परत त्रिपुरारि । दीन दुखी के हेतु सोई, दानी परम उदार ।। पर मेरे पास एक कागज है जिस पर दो दोहे इस प्रकार लिखे हैं- यद्यपि अाप दरिद्र सम, जान परत त्रिपुरारि । दीन दुखी के हेतु सोइ, दानी परम उदार ॥ काल्हि जो माँगे आपुने, आज जात हैं तीस । सात दिना में सत मिलै, सत्य करहिं जगदीस ॥ -