पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०१

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१६२ भारतेंदु हरिश्चन्द्र जोगेन्द्रनाथ बसु ने उर्दू में भी एक नाटक लिखा है। भारतेन्दु जी कृत 'विद्यासुन्दर' तीन अंक में विभाजित एक छोटा सा नाटक है, जो रचयिता के अठारहवें वर्ष की रचना है । यह कृति साधारणतः अच्छी है । पद्य दस ही बारह दिए गए हैं पर अच्छे । भाषा अति सरल है । इसकी पहिली आवृत्ति, शीघ्र ही निकल गई। दूसरी संशोधित आवृत्ति के प्रकाशन की सूचना सं० १९३३ वि० ही में 'श्रीहरिश्चन्द्र अभिनव किरणावला' में निकल गई थी पर वह सं० १६३६ वि० में प्रकाशित हुई। इसकी एक सवैया यहाँ उद्धृत की जाती है, जिसकी सरल भाषा में कही गई सरल बात हृदय पर कैसा असर डालती हैं। धिक है यह देह औ गेह सखी जेहि के बस नेह को टूटना है। उन प्रान पियारे बिना यह जीवहि राखि कहा सुख लूटनो है।। 'हरिचंद जू बात ठनीसो ठनी नित की कलकानि ते छूटनो है। ताज और उपाय अनेक सखी अब तो हम को विष घूटनो है ।। सं० १६२६ वि० में कृष्ण मिश्र कृत प्रबोध-चन्द्रोदय नाटक के तीसरे अंक का 'पाखंड-विडम्बन' के नाम से अनुवाद हुआ। यह छोटी सी गद्यपद्यमय रचना है। इसमें इन्द्रिय-जनित सुख के लोभ से किस प्रकार लोग सात्विक श्रद्धा से विमुख हो जाते हैं यही दिखलाया गया है । इस नाटक में बौद्ध, जैन तथा कापालिक का वर्णन है, पर यह किसी धार्मिक विद्वेष से नहीं अनूदित हुआ है। इसका उल्लेख कवि ने समर्पण में कर दिया है, जो उसी वर्ष के फाल्गुन शुक्ल १४ को लिखा था। इसकी भाषा विद्यासुदर से अधिक प्रौढ़ है और कविता भी अच्छी है। नाटक के अंत में दिखलाया गया है कि सात्विकं श्रद्धा- नहिं जल थल पाताल में गिरिवरहू में नाहिं । कृष्ण-भक्ति के संग वह बसत साधु-चित माहिं ।।