पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०५

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१६६ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र देने को उद्यत होना इन पति-पत्नी के सत्यविचार का कठोरतम देवोपम परीक्षा में उत्तीर्ण होना है। यह आख्यानक ही करुणरस का स्रोत है और उस पर कुशल कवि के हाथ में पड़ने पर यह इस रस का अभूतपूर्व आदर्श हो गया है। मेरे विचार से सस्कृत के भी दोनों नात क इसके पीछे पड़ गए हैं। इस नाटक में 'बैर अकारण सब काहू सों' और “देखि न सकहिं पराइ विभूती” के अच्छे जीते-जाते चित्र तैयार किए गए हैं। शैव्या का विलाप, कुछ लोगों की राय में, आवश्यकता से अधिक हैं पर यदि वे ही पुत्रशोकप्रस्ता किसी स्त्री के विलाप को देखें तो यह स्यात् कम ही ज्ञात होगा। साथ ही शैव्या को रोते रोते इतनी बातें भी तो अनजान में कह डालनी थी जिसमें राजा हरिश्चन्द्र अपनी स्त्री को न पहिचानते हुए उसे सुनकर ही सब वृत्त जान जाँय । जो कुछ हो यह विलाप अस्वाभाविक कभी नहीं होने पाया है। एक सज्जन ने इस नाटक को "नाट्यशास्त्र के किसी मापक यंत्र से नाप जोखकर दिखलाया है कि यह नाट्य- कला की दृष्टि से सदोष है, पर यहाँ इतना ही कहना अलम् है कि आपने यह सब व्यर्थ ही का प्रयास किया है। इसकी विशद विवेचना स्वसंपादित सत्यहरिश्चन्द्र में कर दी है। इस नाटक में करुणा तथा वीर रस का सम्मिश्रण है। राजा हरिश्चन्द्र सत्यवीर हैं और आरम्भ से अंत तक हर प्रकार प्रलोभनों को दूर करते हुए अपने सत्य पथ पर बराबर अग्रसर होते रहे हैं। इतने पर भी इन्हें 'अकमण्य' कहनेवालों को इस प्रकार के पौराणिक नाटकों की समालोचना में स्वयं अकमण्य रहना चाहिए । रानी शैव्या में कवि ने पत्नी का उत्तम आदर्श स्थापित किया है। अपने हृदय की बात कहते हुए भी पति की