पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०६

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रचनाएँ १६७ आज्ञा को शिरोधार्य करते रहना, कष्ट सहिष्णु होना आदि हिन्दू ललनाओं के लिये अनुकरणीय गुण हैं। इस नाटक की भाषा संस्कृत मिश्रित होते हुए भी सरल है, इसके पद्य भी उत्तम बने हैं और शृंगारिक वर्णनों के न होने से यह नाटक अतीव बालकोपयोगी ही नहीं स्त्रियों के लिये भी पठनीय हो गया है। यह नाटक सन् १८७५ ई० के अंत में निर्मित होकर उसके दूसरे वर्ष क्रमशः काशी पत्रिका में छपता रहा था। सन् १८७६ ई० में कवि राजशेखर कृत कर्पूरमंजरी सट्टक का अनुवाद हुआ ! यह शुद्ध प्राकृत में निर्मित हुआ था और रूपक के सट्टक भेद का यही एक उदाहरण प्राप्त है। इसकी कथा बस केवल इतनी ही है कि एक राजा के यहाँ एक योगी जी जाते हैं और अपना चमत्कार दिखलाने को तैयार होते हैं । लंपट राजा एक सुन्दरी स्त्री की उनके मंत्र द्वारा बुलवाता है, जो उसके रानी को मौसेरी बहिन निकलती है। राजा इससे प्रेम करते हैं और अंत में दोनों का विवाह होता है । सट्टक शृङ्गार रस से परिपूर्ण है तथा विदूषक और विचक्षणा के विनोदपूर्ण बातों से उसमें हास्य का भी पुट मिला हुआ है। अनुवाद बहुत ही अच्छा हुआ है और भाषा बहुत सुगम रखी गई है। अनुवाद को पढ़ने से मूल का आनंद आता है और यह स्वतः एक मौलिक ग्रंथ सा ज्ञात होता है। मूल ग्रन्थ से इसमें पद्यों का आधिक्य है और बहुतेरे स्वतंत्र हैं। पद्माकर आदि के भी कुछ पद इसमें उद्धृत किए गए हैं। बड़ौदा-नरेश मल्हारराव सन् १८७० ई० में गद्दी पर बैठे और तीन ही वर्ष के राज्य में इनके कुप्रबन्ध से ऐसी अशांति मची की भारत सरकार ने एक कमीशन उसकी रिपोर्ट करने के