पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र लिए भेजा और. गायकवाड़ को प्रबन्ध ठीक करने के लिये एक वर्ष का समय दिया। इस बीच बड़ौदा के रेजिडेन्ट कर्नल रौबर्ट फेयर को, जिन्होंने उस कुप्रबन्ध की गवर्नमेंट को सूचना दी थी, विष देने का प्रयत्न किया गया । सन् १८७५ ई० में गायकवाड़ कुप्रबन्ध के कारण गद्दी से उतारे गए और उनके स्थान पर सया- जीराव गद्दी पर बिठाए गए। इसी घटना पर उसी वर्ष 'विषस्य विषमौषधम्' नामक भाण लिखा गया। इसमें भंडाचार्य जी का व्याख्यान है, जो पठनीय है । स्वदेशी राज्यों के कर्णधार ही जब कभी प्रजा के साथ कुत्सित व्यवहार कर बैठते हैं और उनकी उस दुष्टता तथा नीचता का जब विदेशीय सरकार द्वारा उन्हें दड मिलता है तब हृदय से सच्चे स्वदेशभक्त के जो उद्गार होंगे उसी का इसमें कुछ दिग्दर्शन हो जाता है। 'अँगरेजन को राज ईस इत चिर करि थापै' उस देशप्रेमी का रुदन है, बधावे बज- वाना नहीं है। वह कह रहा है कि जब हमारे छोटे छोटे देशीय राजे इस शक्तिशाली साम्राज्य के निरीक्षण में ऐसा अत्याचार करते हैं, तो इस शक्ति के हट जाने पर वे क्या न कर डालेंगे। समग्र भारत की प्रजा को अंध देश-भक्ति का ढोंग रचकर इस गायकवाड़ ऐसे उछङ्खल अत्याचारियों के हाथ में दे देने के विचार को भी सच्चा देश-भक्त हृदय में न लावेगा, ढोंगियों की तो निराली ही कथा है। उक्त समालोचक को इसके दो-एक छन्द में अश्लीलता, वह भी निंदनीय अश्लीलता, दिखलाई पड़ी है और इसीसे आपने भारतेन्दु जी पर व्यक्तिगत आक्षेप किया है कि, फिर जिसका चरित्र स्वयं आदर्श रूप न हो वह दूसरे की चरित्रहीनता पर बधावे बजवावे-यह यदि विचित्र बात नहीं तो आश्चर्य-जनक अवश्य है।' यह कथन सत्य ही विचित्र न होते भी आश्चर्य