पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०८

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१६६ रचनाएँ उत्पन्न अवश्य कर रहा है। इस वाक्य के लेखक ही नाटकों के सामालोचक हो सकते हैं। सहृदय पुरुषों का यह साधारण नियम है कि वे मृत पुरुषों के चरित्र पर कटाक्ष करना सज्जनोचित नहीं समझते । भारतेन्दु जी ने मल्हारराव की जीवितास्था में उनके अत्याचार तथा उनकी दुर्दशा को आदर्श बनाकर उपदेश दिया है कि ऐसे स्वदेशी राजों से ईश्वर उनके देशवासियों की रक्षा करे और अन्य राजे उससे शिक्षा ग्रहण करें, पर वाह री आलो- चना, तू जो न चाहे अर्थ लगा ले । इस रचना से भारतेन्दु जी रत्ती भर भी नीचे नहीं खिसके पर उन पर धूल फेंकने वाले के प्रयास का फल अवश्य जैसा होना चाहिए था वैसा ही हुआ। सं० १९३३ वि० में श्री चन्द्राबली नाटिका की रचना हुई। यह नाटिका अनन्य प्रेम रम से सावित है और भारतेन्दु जी की उत्कृष्ट रचनाओं में से है। एक शुद्ध विष्कंभक देकर श्री शुकदेव जी तथा नारद जी से परम भक्तों के वार्तालाप द्वारा ब्रजभूमि के अनन्य प्रेम की सूचना दिलाकर यह नाटिका आरंभ की गई है। ये दोनों पात्र केवल 'कथांशानां निदर्शक: संक्षेपार्थः' लाए गए हैं और इनसे नाटिका के मुख्य कथा-वस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसीसे कवि ने इन दोनों के आने-जाने, होने का कुछ पता नहीं दिया है। इसमें वीणा पर उत्प्रेक्षाओं की एक माला ही पिरो डाली गई है । पहिले अंक में चन्द्रावली जी तथा सखी के कथोपकथन से उसका श्री कृष्ण पर प्रेम प्रकट होता है। दूसरे अंक में श्रीचन्द्रावली जी अपना विरह वर्णन कर रही हैं और उपवन में कई सखियों से वार्तालाप भी होता है। विरहो- न्माद में प्रिय के अन्वेषणार्थ जो प्रलाप कराया गया है, वह यदि अभिनय की दृष्टि से कुछ अधिफ लंबा कहा जाय तो कह सकते हैं। पर अस्वाभविक रत्ती भर भी नहीं होने पाया है।