पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२१८

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राजभक्ति-विषयक २०६ था । ऐसे समय शांति-स्थापक अंग्रेजी राज्य को 'ईस इत थिर करि थापै' कहना ही देशप्रेम था। साथ ही अंग्रेजी राज्य के दोषों का कथन, उनके निवारणार्थ प्रार्थना करना आदि 'राजद्रोह' नहीं कहा जा सकता था । वे अंग्रेजी राज्य को उसके दूषणों से रहित देखना ही देशप्रेम समझते थे और वही उस समय के लिए उचित भी था! भारत से उस समय अंग्रेजी राज्य के निर्वासन का कथन कोरा देशद्रोह होता। कुछ लोगों ने उनकी निर्भीक स्पष्टवादिता को राजद्रोह बताकर द्वेष के वशीभूत हो सरकारी कर्मचारियों में उन्हें 'राजद्रोही घोषित कर दिया था और इनमें भारतेन्दु जी के गुरु स्वर्गीय राजा शिवप्रसाद सरीखे महापुरुष भी सम्मिलित थे। इन गुरु-शिष्य में हिन्दी के भाषा-भेद ही को लेकर मनोमालिन्य पैदा हुआ था। भारतेन्दु जी को शुद्ध हिन्दी तथा राजा शिवप्रसाद को खिचड़ी हिन्दी पसंद थी। शिष्य की शैली सब को पसंद आई और वही हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा बन गई । अन्त को गुरु जी गुड़ ही रह गए। इस मनोमालिन्य के कारण राजा साहेब ने कवि-वचन-सुधा के "लेवी प्राण लेवी" तथा 'मर्सिया' नामक दो लेखों का सरकारी कर्मचा- रियों को ऐसा उल्टा अर्थ सुझाया कि वे उनके फेर में आगए और भारतेन्दु जी पर कुपित हो गए। इनकी जो पत्रिकाएँ ली 'जाती थीं वे किसी बहाने बन्द कर दी गई। पर इन्होंने इसका कुछ विचार न किया और अपने व्रत से न डिगे। देश-प्रेम के कारण ही यह भारत-सरकार के पूर्ण शुभचिंतक थे और इसलिए वे वैसे ही अंत तक बने रहे। सन् १८६६ ई० में सम्राज्ञी विक्टोरिया के द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑव एडिम्बरा भारत आए थे, उस समय उनके काशी पधारने पर इन्होंने अपने घर पर भारी उत्सव मनाया १४