पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र था। काशी में उनका जो कुछ स्वागत हुआ था, उस सब में इन्हीं की सहायता प्रधान थी। यह बराबर ड्यक के साथ रहते थे और इन्हीं को उन्हें काशी दिखलाने का भार सौंपा गया था। इनकी तथा इनके गृह के सजावट की स्वयं ड्यूक ने प्रशंसा की थी। भारतेन्दु जी ने, काशी के पंडितों की, २० जनवरी सन् १८७० ई० को, सभा की थी, जिसमें ड्यूक की प्रशंसात्मक रचनाएँ पढ़ी गई थीं। ये ही सुमनोऽञ्जलि पुस्तक में संगृहीत की जाकर ड्यूक को बाद को समर्पित की गई थी। इसमें संस्कृत का अंश ही अधिक है, हिन्दी के केवल सात ही पद है। ड्यूक महोदय सं० १६२६ की कार्तिक पूर्णिमा को काशी आए थे, जिस दिन चन्द्रग्रहण था। भारतेन्दु जी ने इसी को लेकर निम्नलिखित कवित्त बनाया था- वाको जन्म जल याको रानी कोख सागर ते, वह सकलंकी यामें छीटहू न आई है। वह नित घटै यह बाढ़ दिन दिन, वह बिरही दुखद यह जन-सुखदाई है। जानि अधिकाई सब भाँति राजपुत्र ही की, गहन के मिस यह मति उपजाई है। देखि आज उदित प्रकाशमान भूमि चंद, नभ ससि लाज मुख कालिमा लगाई है। इस संग्रह तथा इनकी राजभक्ति से प्रसन्न होकर रीवा-नरेश ने दो सहस्र तथा विजयनगर की राजकुमारी ने ढाई सौ रुपये पारितोषिक भेजे थे-जिसे भारतेन्दुजी ने कविता-रचयिता पंडितों में वितरण कर दिया था। इन विद्वानों ने अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये भारतेन्दु जी को संस्कृत में एक मानपत्र