पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२४

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. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सन् १८८४ ई० के अप्रैल में कीन विक्टोरिया के चतुर्थ पुत्र ड्यूक ऑव ऐलबनी की मृत्यु होने पर भारतेन्दु जी ने शोक प्रकट करने के लिये १२ अप्रैल, शनिवार, को सायंकाल के समय ५ बजे सभा निमन्त्रित की थी। सभा के अधिवेशन के लिए काशी के मैजिस्ट्रेट से टाउनहाल पहिले ही माँगा गया था और उन्होंने सहर्ष उसे देना स्वीकार भी कर लिया था। पर ठीक सभा के दिन उन्होंने हॉल नहीं दिया, जिससे अनेक संभ्रान्त लोग आ-आकर लौट गये । अत: दूसरे दिन कालेज में कुछ सज्जनों ने मीटिंग कर वहीं शोक सभा करना निश्चित किया। मैजिस्टे ट ने यह सुनकर अपनी भूल स्वीकार की और आग्रह कर १५ अप्रैल को टाउनहाल ही में सभा कराई । बा० प्रमदादास मित्र सभापति बनाए गए । भारतेन्दु जी ने सम्राज्ञी विक्टोरिया के दया आदि गुण का वर्णन कर यह भी प्रस्ताव किया था कि शोक प्रकाशक प्रस्ताव ड्य क ओंव केनॉट के पास भी भेजा जाय । दोनों ही तार के लिए सभा के सभापति के नाम धन्य- बाद आया था। भारतेश्वरी की आज्ञा से वाइसराय की और से उन्हीं मैजिस्ट्रेट द्वारा यह धन्यवाद आया था, पर व्यर्थ ही उन्होंने किसी के बहकाने से ऐसे कार्य में बाधा डाली थी। कहा जाता है कि राजा शिवप्रसाद सी० एस० आई० ने ही इस सभा को राजद्रोह-मूलक बतलाकर रोकना चाहा था । यह स्वयं सभा में पधारे थे और कुछ कहना भी चाहते थे पर उपस्थित सज्जनों ने इन्हें बोलने की आज्ञा नहीं दी। इस पर यह भारतेन्दु जी ही पर विशेष कुढ़े और काशिराज के यहाँ जाकर इन्हें ही अपने अपमान का कारण बतलाया । महाराज ने भारतेन्दु जी को पत्र लिखा कि 'राजा साहब का क्यों अपमान किया गया ? उनका अपमान करना मानो दरबार का अपमान करना है।'