पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजभक्ति-विषयक । इस पत्र को देखकर भारतेन्दु जी ने पत्रोत्तर न देकर केवल मौखिक संदेशा कहला भेजा कि काशिराज के लिये हम दोनों समान हैं। पर महाराज ने हमारे अपमान का कुछ न ध्यान कर राजा साहिब के अपमान से अपना अपमान समझा तो अब हम भी महाराज के दरबार में न आएँगे। पूर्वोक्त बातों के सिवा साधारणतः वे सम्राज्ञी के प्रति वर्षगाँठ पर अपने स्कूल में उत्सव मनाया करते थे। ड्यूक ऑव एडिम्बरा की नववधू के लिए २० दोहों में ‘मुंह-दिखावनी' लिखी थी। इस प्रकार देखा जाता है कि वे भारत सरकार की कृपा तथा कोप दोनों ही की परवाह न कर अथ से अंत तक महारानी के सुख में सुख तथा दुख में दुख मनाते रहे । ऐसा करते हुए भी यदि कुछ लोग उन्हें राजद्रोही समझते रहे हों, तो उसकी वे सर्वदा उपेक्षा करते थे। वे हृदय से पूर्ण राजभक्त थे, हाँ राजकर्मचारी- या चापलूस न थे। व स्पष्टवादी थे । गुणानुकीर्तन करते हुए वे दोष भी कहते थे। जिन्हें- अँगरेज राज सुख साज सजे सब भारी । पै धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी ।। में राजद्रोह दिखलाई पड़े, वे ही सच्चे राजद्रोही हैं। सच्चे राजभक्तों की कमी तथा खुशामदियों के आधिक्य ही से कितने मुसल्मानी राज्य गारत हो गए। भारतेन्दु जी ने स्वयं 'मान- सोपायन' के समर्पण में लिखा है कि "हम सब स्वभाव-सिद्ध राजभक्त हैं। विचारे छोटे पद के अंग्रेजों को हमारे चित्त की क्या खबर है, ये अपनी ही तीन छटांक पकाने जानते हैं।" इनमें राजभक्ति तथा देश-प्रेम दोनों पूर्ण रूप से वर्तमान था और दोनों ही के लिये इनका हार्दिक उद्गार गद्य-पद्य के रूप में समय-समय पर निकला करता था । ऐसी अवस्था में भारतेन्दु