पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२१८ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी के प्रति साधारण पुरुष-गण कभी एक को कभी दूसरे को लेकर अपनी द्वेषपूर्ण कुवृत्तियों को चरितार्थ कर सकते हैं। उन्हें देशद्रोही तथा राजद्रोही उन्हीं की रचनाओं से साबित कर देना सहज हो गया है। पर ऐसा करना मनुष्यत्व से परे है। ये भारतीय दुगुणों को दिखलाकर उनको दूर करने, उसकी अवनति तथा दुर्दशा पर रुदन करने तथा उन्नति मार्ग दिखलाने को जिस प्रकार देशप्रेम समझते थे उसी प्रकार राजा या उसके कर्म- चारियों द्वारा जान या अनजान में प्रजा को जिस कार्य से कष्ट पहुंचा हो, उसको राजा के कर्णगोचर कराना राजभक्ति समझते थे। वे एक साँस में दोनों को यों कह डालते थे- स्वागत स्वागत धन्य प्रभु, श्री सर विलियम म्योर । टिकस छुड़ावहु सबन को विनय करत कर जोर ।। देखिए इसमें देशद्रोह तथा राजद्रोह दोनों का कैसा अनूठा जोड़ है, पर है यह सच्चे निर्भीक हृदय का गंभीर कथन । आज बहुत पढ़े-लिखे समग्र भारत के गण्यमान्य लोग भी ऐसा कहने में हिचकते हैं। वे दो में से एक बनते हैं। या वे अपने को पक्का देशभक्त दिखलाने के लिए अंग्रेजों के गुणों को भी दोष-रूप में दिखलावेंगे या पूरे अंग्रेज भक्त बनकर उनके दुर्गुण भी छिपावेंगे। पूर्वोक्त दोहा उस अवसर पर बना था जब पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलिअम म्योर काशी आए थे और उनके स्वागत में गंगातट पर खूब रोशनी हुई थी। उसी उत्सव में एक नाव पर 'ओह टैक्स' और दूसरी पर यह दोहा लिखवा- कर इस प्रकार उन्हें रखवाया था कि लाट साहब की उनपर अवश्य दृष्टि पड़े। लॉर्ड नार्थब्रुक के समय इनकम टैक्स छुड़ाने की गप्प उड़ी थी और उसके लिए भारतेन्दु जी ने उत्सव मनाने के लिए सभा की थी तथा बड़े लाट के पास धन्यवाद-पत्र भी .