पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२९

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धर्म-ग्रंथ २२१ दिया है । प्रियादास तथा नाभादास जी के भक्तमाल की रचना के बाद हुए भक्तों तथा पहिले समय के भी छुटे हुए भक्तों का वृत्तांत इसमें भारतेन्दु जी ने संगृहीत किया है । इसकी रचना- . उनइस सै तैंतीस वर, संवत् भादो मास । पूनों शुभ ससि दिन कियो, भक्तचरित्र प्रकास ।। इस ग्रन्थ को इन्होंने पहिले चन्द्रिका में प्रकाशित किया था कवि ने. पहिले आचार्य -परम्परा की वन्दना की है और तब ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य बतलाते हुए स्ववंश-वर्णन दिया है। मूल ग्रन्थ के अन्त में विनम्र निवेदन करते हुए अपने को लिखा है। जगत जाल में नित बध्यों, परयो नारि के फंद । मिथ्या अभिमानी पतित, झूठो कवि हरिचन्द ।। वर्ष भर के उत्सवों तथा संक्षेप सेवा शृङ्गारादि वर्णन में एक छोटी सी पुस्तिका 'उत्सवावली' बनाया था । इसमें एकादशी प्रत दान आदि का भी वर्णन दिया है। 'वैष्णवता और भारत-. वर्ष' में यह समर्थन विशेष रूप से किया गया है कि भारत में वैष्णवमत बहुत प्राचीन है और विष्णु के अवतार श्री कृष्ण तथा श्री राम की भक्ति तथा उपासना यहाँ बहुत दिनों से तथा दृढ़ता से प्रचलित है । हिन्दू मात्र किसी न किसी रूप में इन्हीं की पूजा करते हैं पर आपस के मतमतांतर के कारण झगड़ते रहते हैं। अंत में लेखक ने देश में फैली हुई आपस की फूट को दूर कर 'सब आर्यमात्र एक रहो' यही उपदेश दिया है, जो आज भी वांछनीय है। 'अष्टादशपुराणोपक्रमणिका' में व्यासकृत अठारह पुराणों की श्लोकसंख्याओं तथा उनके प्रत्येक के स्कंध आदि विभागों के